चित्त का आध्यात्मिक विश्लेषण

चित्त

चित्त विशेष रूप से मन या चेतना (Consciousness) को कहते हैं। यह वह तत्व है जो अनुभव, संज्ञान (cognition) और भावनाओं को उत्पन्न करता है। यह निरंतर परिवर्तनशील और क्षणभंगुर होता है। चित्त के विषय में कहा जाता है कि ‘चित्तं नाम चेतनस्स हेतु’ अर्थात् चित्त वह है जो चेतना को उत्पन्न करता है। चित्त किसी भी अनुभव को ग्रहण करने, उसे समझने और प्रतिक्रिया देने की क्षमता रखता है। चित्त का गहन अध्ययन करने से व्यक्ति ध्यान की गहरी समझ प्राप्त कर सकता है, जिससे वह आत्मज्ञान और निर्वाण की ओर अग्रसर हो सकता है।

चित्त के प्रमुख गुण

  1. अनित्य (Anicca) – चित्त हर क्षण बदलता रहता है।
  2. दुःख (Dukkha) – यह परिवर्तनशीलता के कारण अस्थिर और अप्रत्याशित अनुभवों को जन्म देता है।
  3. अनात्म (Anatta) – चित्त का कोई स्थायी ‘स्वरूप’ नहीं होता, यह विभिन्न मानसिक कारकों (चेतसिक) के साथ मिलकर कार्य करता है।

चित्त के प्रकार

 चित्त को 4 प्रमुख श्रेणियों में विभाजित किया गया है —

  1. कुसल चित्त (Kusala Citta) – इसे पुण्यकारी चित्त कहते हैं। यह शील, ध्यान और प्रज्ञा को बढ़ाने वाला है। जैसे— दान देने का चित्त आदि।
  2. अकुसल चित्त (Akusala Citta) – इसे अपुण्यकारी चित्त कहते हैं। यह लोभ, दोस और मोह के कारण उत्पन्न होता है। जैसे— क्रोध, ईर्ष्या, अहंकार से उत्पन्न चित्त।
  3. विपाक चित्त (Vipāka Citta) – इसे फलदायक चित्त कहते हैं। यह पूर्वकृत कर्मों का परिणामस्वरूप उत्पन्न होने वाला चित्त होता है। जैसे— पिछले कर्म के पुण्य या पाप के अनुसार मिलने वाले अनुभव।
  4. किरिया चित्त (Kiriya Citta) – इसे निष्क्रिय चित्त कहते हैं। यह किसी कर्म का फल उत्पन्न नहीं करता, केवल मानसिक कार्य के रूप में रहता है। जैसे — अर्हतों (बुद्धत्व प्राप्त व्यक्तियों) का चित्त, जो कर्मबंधन से मुक्त होता है।

चित्त और मानसिक कारक

चित्त अकेले कार्य नहीं करता, बल्कि यह 52 मानसिक कारकों के साथ मिलकर कार्य करता है। ये मानसिक कारक चित्त को दिशा, भावना और प्रभाव प्रदान करते हैं। जैसे— लोभ सहगत चित्त, दोस सहगत चित्त और मोह सहगत चित्त आदि।

चित्त का प्रवाह (चित्त-संतति)

विपश्यना के अभ्यास में चित्त को एक निरंतर प्रवाह (चित्त-संतति) के रूप में देखा जाता है। प्रत्येक चित्त क्षणिक होता है और एक चित्त के समाप्त होते ही दूसरा उत्पन्न होता है। इस प्रक्रिया में चित्त की तीन अवस्थाएँ होती हैं—

  1. उप्पाद (Uppāda) – चित्त की उत्पत्ति
  2. ठिति (Thiti) – चित्त की स्थिति (अति अल्पकालिक)
  3. भंग (Bhanga) – चित्त का विलय (अवसान)

यह निरंतरता अनात्मवाद का समर्थन करती है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि आत्मा जैसी कोई स्थायी सत्ता नहीं होती, बल्कि चित्त मात्र एक मानसिक प्रवाह है।

अभिधम्मत्थसंगहो के अनुसार चित्त का वर्गीकरण

  1. कामावचर चित्त (कामधातु में कार्य करने वाला चित्त)
  2. रूपावचर चित्त (रूपध्यान से संबंधित चित्त)
  3. अरूपावचर चित्त (अरूपध्यान से संबंधित चित्त)
  4. लोकुत्तर चित्त (निर्वाण से संबंधित चित्त)

संक्षिप्त विवरण

  1. कामावचर चित्त (काम-लोक में कार्य करने वाला चित्त)
  • अकुसल चित्त (12 प्रकार) – लोभ, द्वेष, मोहजन्य चित्त।
  • अहेतुक चित्त (18 प्रकार) – इंद्रिय-द्वारों से उत्पन्न होने वाले चित्त।
  • सोभन चित्त (कामावचर कुसल, विपाक, किरिया – 24 प्रकार) – पुण्यकारी चित्त।
  1. रूपावचर चित्त (ध्यान से संबंधित चित्त)
  • ध्यान के पाँच स्तरों के आधार पर 15 चित्त।
  1. अरूपावचर चित्त (सूक्ष्म ध्यान से संबंधित चित्त)
  • चार ध्यान अवस्थाओं के अनुसार 12 चित्त।
  1. लोकुत्तर चित्त (निर्वाण से संबंधित चित्त)
  • आर्य मार्ग के आठ चरणों के अनुसार 8 चित्त।

सोमनस्ससहगतं

  • सोमनस्स + सहगतं
  1. सोमनस्स (Somanassa)
    • सोम (शांत, प्रसन्न) + मनस्स (मन)
    • अर्थात प्रसन्नचित्तता, सुखपूर्ण मनोदशा
  2. सहगतं (Sahagata)
    • सह (साथ) + गत (गमन) + अं (तद्धित प्रत्यय)
    • अर्थात साथ रहने वाला, संलग्न, सहचरित

अन्वय

  • सोमनस्ससहगतं = सोमनस्सेन सह गतं चित्तं
  • अर्थात ऐसा चित्त जो सुखानुभूति के साथ प्रवाहित होता है

अर्थ

‘सोमनस्ससहगतं चित्त’ वह चित्त है जो आनंद, प्रसन्नता और सुखमय भावना के साथ उत्पन्न होता है। यह सुख-वेदना (सांसारिक या आध्यात्मिक प्रसन्नता) से युक्त होता है और सकारात्मक मानसिक अवस्थाओं (जैसे कुसल चित्त) में देखा जाता है।

दिट्ठिगतसम्पयुत्तं

  • दिट्ठिगत + सम्पयुत्तं
  1. दिट्ठिगत (Diṭṭhigata)
    • दिट्ठि (दृष्टि, मत, विचार) + गत (स्थित, संबद्ध)
    • अर्थात किसी विशेष दृष्टिकोण, मत या विचार से संबंधित।
    • विशेष रूप से यह शब्द मिथ्यादृष्टि (गलत दृष्टिकोण) के लिए प्रयुक्त होता है, जो बौद्ध दर्शन में दृष्टिग्राह्यता (view attachment) या दृढ़ मताग्रह (wrong belief attachment) को दर्शाता है।
  2. सम्पयुत्तं (Sampayutta)
    • सम् (साथ) + पयुत्त (संलग्न, संबद्ध) + अं (तद्धित प्रत्यय)
    • अर्थात किसी चीज़ के साथ जुड़ा हुआ, संबद्ध।

अन्वय

  • दिट्ठिगतसम्पयुत्तं = दिट्ठिगतस्स सह सम्पयुत्तं चित्तं
  • अर्थात ऐसा चित्त जो किसी विशेष दृष्टिकोण (विशेषकर मिथ्यादृष्टि) के साथ संबद्ध होता है।

अर्थ

‘दिट्ठिगतसम्पयुत्तं चित्त’ वह चित्त है जो मिथ्यादृष्टि (गलत दृष्टिकोण) के साथ जुड़ा हुआ होता है। यह लोभमूलक चित्तों का एक प्रकार है, जहाँ व्यक्ति किसी गलत विश्वास, संकीर्ण दृष्टिकोण या भ्रांत धारणाओं से चिपका रहता है। यह शब्द मुख्य रूप से अकुसल चित्तों (अशुभ चित्तों) में आता है, जहाँ किसी व्यक्ति की सोच अहंकार, मोह या लोभ के कारण विकृत हो जाती है और वह सत्य को गलत तरीके से समझने लगता है।

संक्षिप्त सार

दिट्ठिगतसम्पयुत्तं चित्त = विकृत दृष्टिकोण (मिथ्यादृष्टि) से संबद्ध चित्त।

असङ्खारिकमेकं

  • असङ्खारिक + एकं
  1. असङ्खारिक (Asakhārika)
    • (नकारार्थक उपसर्ग) + सङ्खारिक (प्रयत्नशील, प्रेरित, योजना करने वाला)
    • सङ्खारिक (Sakhārika) शब्द संखार (sakhāra) से बना है, जिसका अर्थ होता है— संयोजन, तैयारी, प्रयास, प्रेरणा
    • अतः असङ्खारिक का अर्थ हुआ— जो बिना किसी बाहरी प्रेरणा, योजना या प्रयास के उत्पन्न हुआ हो, अर्थात स्वतः उत्पन्न होने वाला चित्त
  2. एकं (Eka)
    • एक (एक, अकेला) + अं (तद्धित प्रत्यय)
    • अर्थात एक प्रकार का, एकमात्र।

अन्वय

  • असङ्खारिकमेकं = असङ्खारिकं चित्तं एकं
  • अर्थात ऐसा एक चित्त जो बिना किसी बाहरी प्रेरणा के स्वयं उत्पन्न होता है।

अर्थ

‘असङ्खारिक चित्त’ वह चित्त है जो स्वतः उत्पन्न होता है, बिना किसी बाहरी प्रेरणा या प्रयास के। यह ससङ्खारिक चित्त (जो किसी बाहरी प्रेरणा, सोच-विचार या परामर्श से उत्पन्न होता है) के विपरीत है।

संक्षिप्त सार

असङ्खारिकमेकं चित्त = स्वतः उत्पन्न होने वाला चित्त, बिना किसी प्रेरणा या योजना के उत्पन्न हुआ एक चित्त। यह अभिधम्म में अकुसल (अशुभ) और कुसल (शुभ) दोनों प्रकार के चित्तों में आता है।

ससङ्खारिकमेकं

  • ससङ्खारिक + एकं
  1. ससङ्खारिक (Sakhārika)
    • (साथ) + सङ्खारिक (प्रयत्नशील, प्रेरित, योजना करने वाला)
    • सङ्खार (Sakhāra) शब्द सं+खृ (संघटित करना, बनाना, तैयार करना) धातु से बना है, जिसका अर्थ होता है— प्रयास, योजना, प्रेरणा, संकल्प।
    • अतः ससङ्खारिक का अर्थ हुआ— जो किसी बाहरी प्रेरणा, योजना या प्रयास से उत्पन्न हुआ हो, अर्थात प्रयासपूर्वक उत्पन्न होने वाला चित्त
  2. एकं (Eka)
    • एक (एक, अकेला) + अं (तद्धित प्रत्यय)
    • अर्थात एक प्रकार का, एकमात्र।

अन्वय

  •  ससङ्खारिकमेकं = ससङ्खारिकं चित्तं एकं
  • अर्थात ऐसा एक चित्त जो बाहरी प्रेरणा, योजना या प्रयास से उत्पन्न होता है।

अर्थ

‘ससङ्खारिक चित्त’ वह चित्त है जो बाहरी प्रेरणा, योजना, अथवा संकल्प से उत्पन्न होता है। यह असङ्खारिक चित्त (जो बिना किसी बाहरी प्रेरणा के स्वतः उत्पन्न होता है) के विपरीत है। ससङ्खारिक चित्त किसी अन्य व्यक्ति के उपदेश, विचार, प्रेरणा, अथवा किसी आंतरिक योजना के कारण उत्पन्न हो सकता है।

संक्षिप्त सार:

ससङ्खारिकमेकं चित्त = बाहरी प्रेरणा या योजना से उत्पन्न हुआ एक चित्त।
यह अभिधम्म में अकुसल (अशुभ) और कुसल (शुभ) दोनों प्रकार के चित्तों में आता है।

दिट्ठिगतविप्पयुत्तं

  • दिट्ठिगत + विप्पयुत्तं
  1. दिट्ठिगत (Diṭṭhigata)
    • दिट्ठि (दृष्टि, मत, विचार) + गत (स्थित, संबद्ध)
    • अर्थात किसी विशेष दृष्टिकोण, मत या विचार से संबंधित।
    • विशेष रूप से यह शब्द मिथ्यादृष्टि (गलत दृष्टिकोण) के लिए प्रयुक्त होता है, जो बौद्ध दर्शन में दृष्टिग्राह्यता (view attachment) या दृढ़ मताग्रह (wrong belief attachment) को दर्शाता है।
  2. विप्पयुत्तं (Vippayutta)
    • वि (विरुद्ध, अलग) + पयुत्त (संलग्न, संबद्ध) + अं (तद्धित प्रत्यय)
    • अर्थात अलग, असंबद्ध, मुक्त।

अन्वय

  •  दिट्ठिगतविप्पयुत्तं = दिट्ठिगतस्स विप्पयुत्तं चित्तं
  • अर्थात ऐसा चित्त जो किसी विशेष दृष्टिकोण (विशेषकर मिथ्यादृष्टि) से मुक्त हो।

अर्थ

‘दिट्ठिगतविप्पयुत्तं चित्त’ वह चित्त है जो मिथ्या दृष्टि (गलत दृष्टिकोण) से मुक्त होता है। यह दिट्ठिगतसम्पयुत्तं चित्त (जो मिथ्या दृष्टि से संबद्ध होता है) के विपरीत है। इस प्रकार का चित्त निष्पक्ष होता है और किसी भी गलत विश्वास, संकीर्ण दृष्टिकोण या भ्रांत धारणाओं से प्रभावित नहीं होता।

संक्षिप्त सार:

दिट्ठिगतविप्पयुत्तं चित्त = मिथ्यादृष्टि से मुक्त चित्त।
यह चित्त निष्पक्ष होता है और किसी गलत मताग्रह से प्रभावित नहीं होता।

‘उपेक्खासहगतं’

  • उपेक्खा + सहगतं
  1. उपेक्खा (Upekkhā)
    • उप (समीप, समान) + इक्ख (ikkh) (देखना, निरीक्षण करना) + (प्रत्यय)
    • अर्थात समभाव, तटस्थता, निष्पक्ष दृष्टिकोण।
    • यह न तो सुख (सोमनस्स) और न ही दुख (दुक्ख) से युक्त अनुभूति होती है।
  2. सहगतं (Sahagata)
    • सह (साथ) + गत (गमनशील, संयुक्त) + अं (तद्धित प्रत्यय)
    • अर्थात जिसके साथ संयुक्त हो, जिसमें सम्मिलित हो।

अन्वय

  •  उपेक्खासहगतं = उपेक्खाय सहगतं चित्तं
  • अर्थात ऐसा चित्त जो समभाव या तटस्थता के साथ संयुक्त हो।

 अर्थ

‘उपेक्खासहगतं चित्त’ वह चित्त है जो तटस्थता, समता और मानसिक संतुलन के साथ जुड़ा होता है। यह चित्त न सुख (सोमनस्स) न दुख (दुक्ख) की भावना से प्रभावित होता है। यह विशेष रूप से ध्यान में देखा जाता है, जहाँ व्यक्ति न आसक्ति (राग) न द्वेष (द्वेष) की ओर झुकता है।

संक्षिप्त सार:

उपेक्खासहगतं  चित्त =
तटस्थता और समभाव से युक्त चित्त।
यह न सुखद (pleasurable) न दुखद (painful) होता है, बल्कि समता की स्थिति में रहता है।

लोभसहगतचित्तानि

  • लोभ + सहगत + चित्तानि
  1. लोभ (Lobha)
    • √लुभ् (लुभ्यते) धातु से बना हुआ शब्द।
    • इसका अर्थ होता है अधिक पाने की इच्छा, तृष्णा, लालच या आसक्ति।
    • बौद्ध दर्शन में यह तीन अकुशल मूलों (अकुसल मूल) में से एक है— लोभ, द्वेष और मोह।
  2. सहगत (Sahagata)
    • सह (साथ) + गत (गमनशील, संयुक्त)
    • अर्थात जो किसी चीज़ के साथ जुड़ा हो, जिसमें सम्मिलित हो।
  3. चित्तानि (Cittāni)
    • चित्त (मन, चेतना, मानसिक अवस्था) + आनि (बहुवचन प्रत्यय)
    • अर्थात चित्त के अनेक प्रकार।

अन्वय

  • लोभसहगतचित्तानि = लोभेन सह गतानि चित्तानि
  • अर्थात ऐसे चित्त जो लोभ (अतिशय तृष्णा या लालच) से जुड़े हुए हैं।

तात्त्विक अर्थ:

‘लोभसहगतचित्त’ वह चित्त होता है जो आसक्ति, तृष्णा, या लालच से प्रभावित होता है। यह चित्त अकुशल (अकुसल) होता है, क्योंकि यह लोभ (क्लेश) से उत्पन्न होता है और मोक्ष-मार्ग में बाधक होता है। अभिधम्म के अनुसार, लोभसहगतचित्त विभिन्न रूपों में प्रकट हो सकता है, जैसे—

  • मिथ्या दृष्टि के साथ (दिट्ठिगतसंपयुत्तं)
  • मिथ्या दृष्टि से रहित (दिट्ठिगतविप्पयुत्तं)
  • संकल्पपूर्वक (ससङ्खारिकं)
  • बिना संकल्प के (असङ्खारिकं)

संक्षिप्त सार

लोभसहगतचित्तानि = ऐसे चित्त जो लोभ (अतिशय तृष्णा, लालच) के साथ जुड़े होते हैं।
ये अकुशल चित्त होते हैं, जो मानसिक अशुद्धि और बंधन (संस्कार) को बढ़ाते हैं।

दोमनस्ससहगतं

  • दोमनस्स + सहगतं
  1. दोमनस्स (Domanassa)
    • दो (कष्ट, पीड़ा) + मनस्स (मन)
    • अर्थात कष्टपूर्ण मानसिक अवस्था, दुख, चिंता, खिन्नता।
    • बौद्ध दर्शन में यह मानसिक दुःख (मानसिक असंतोष) को दर्शाता है, जो द्वेष (द्वेष) और प्रतिघ (क्रोध) से जुड़ा होता है।
  2. सहगतं (Sahagata)
    • सह (साथ) + गत (गमनशील, संयुक्त)
    • अर्थात जो किसी चीज़ के साथ संयुक्त हो या जिसमें सम्मिलित हो।

अन्वय

  • दोमनस्ससहगतं = दोमनस्सेन सह गतं चित्तं
  • अर्थात ऐसा चित्त जो मानसिक दुःख (खिन्नता, उदासी, क्रोध) के साथ जुड़ा हो।

अर्थ

‘दोमनस्ससहगतं चित्त’ वह चित्त है जो दुख, खिन्नता, उदासी या मानसिक असंतोष के साथ उत्पन्न होता है। यह विशेष रूप से द्वेष (क्रोध) और प्रतिघ (विरोध) से संबंधित होता है। यह चित्त अकुशल (अकुसल) चित्त की श्रेणी में आता है, क्योंकि यह मानसिक अशुद्धि और अशांति को बढ़ाता है। यह चित्त द्वेष, क्रोध, ईर्ष्या, जलन जैसी भावनाओं को जन्म देता है और व्यक्ति को मानसिक रूप से अशांत रखता है।

संक्षिप्त सार

दोमनस्ससहगतं चित्त = ऐसा चित्त जो मानसिक दुख, खिन्नता या असंतोष से युक्त हो।
यह अकुशल चित्त होता है और द्वेष (क्रोध) से प्रभावित रहता है।

पटिघसम्पयुत्तं

पटिघ + सम्पयुत्तं

  1. पटिघ (Paigha)
    • पटि (विपरीत, विरोध) + घ (घट्) (टकराना, संघर्ष करना)
    • अर्थात टकराव, विरोध, आघात, द्वेष, क्रोध, प्रतिघात।
    • बौद्ध अभिधम्म में यह विशेष रूप से क्रोध और द्वेष (द्वेष) की मानसिक प्रवृत्ति को दर्शाता है।
  2. सम्पयुत्तं (Sampayutta)
    • सम् (साथ) + पयुत्त (जुड़ा हुआ, संयुक्त)
    • अर्थात जिसका किसी अन्य चीज़ के साथ घनिष्ठ संबंध हो, जो उससे जुड़ा हो।

अन्वय और अर्थ:

  • पटिघसम्पयुत्तं = पटिघेन सम्पयुत्तं चित्तं
  • अर्थात ऐसा चित्त जो प्रतिघ (क्रोध, द्वेष) के साथ जुड़ा हो।

अर्थ

‘पटिघसम्पयुत्तं चित्त’ वह चित्त होता है जो क्रोध, विरोध, द्वेष, या मानसिक आघात से प्रभावित होता है। यह अकुशल (अकुसल) चित्त की श्रेणी में आता है, क्योंकि यह मानसिक अशांति, संघर्ष और बंधन को बढ़ाता है। यह चित्त द्वेष (क्रोध) से उत्पन्न होता है, जिससे व्यक्ति अशांत, क्रोधी, और हिंसक मानसिकता वाला बन जाता है। यह दोमनस्स (मानसिक दुःख) के साथ संबद्ध रहता है, क्योंकि क्रोध के कारण व्यक्ति का मन अशांत और पीड़ित होता है।

संक्षिप्त सार

पटिघसम्पयुत्तं चित्त = ऐसा चित्त जो द्वेष, क्रोध और मानसिक आघात से युक्त हो।
यह अकुशल चित्त होता है और मानसिक अशांति एवं संघर्ष को जन्म देता है।

विचिकिच्छासम्पयुत्तमेकं

  • विचिकिच्छा + सम्पयुत्तं + एकं
  1. विचिकिच्छा (Vicikicchā)

अभिधम्म दर्शन में ‘विचिकिच्छा’ अविद्या (अज्ञान) के कारण उत्पन्न संशयात्मक मानसिक स्थिति को दर्शाता है, जिसमें व्यक्ति धर्म (धम्म), बुद्ध, संघ, मार्ग आदि पर शंका करता है।

  1. सम्पयुत्तं (Sampayutta)
    • सम् (साथ) + पयुत्त (संयुक्त, संबद्ध)
    • अर्थात जो किसी अन्य चीज़ के साथ गहराई से जुड़ा हुआ हो।
  2. एकं (Eka)
    • एक (एक मात्र, एक विशिष्ट)
    • यहाँ यह एक प्रकार के चित्त को दर्शाता है।

अन्वय

  • विचिकिच्छासम्पयुत्तमेकं = विचिकिच्छाय सम्पयुत्तं एकं चित्तं
  • अर्थात ऐसा चित्त जो विचिकिच्छा (संदेह, शंका) के साथ जुड़ा हुआ है और जो एक प्रकार का है।

अर्थ

‘विचिकिच्छासम्पयुत्तं चित्त’ वह चित्त होता है जो अज्ञानजनित संदेह, शंका, और असमंजस से प्रभावित होता है। यह अकुशल (अकुसल) चित्त की श्रेणी में आता है, क्योंकि यह व्यक्ति को भ्रमित और अनिर्णायक बना देता है। इस चित्त में व्यक्ति को धम्म (धर्म), बुद्ध, संघ, निर्वाण, चार आर्य सत्य, अष्टांगिक मार्ग आदि पर संशय होता है। यह चित्त अज्ञान (अविद्या) का परिणाम होता है और मोहमूल चित्त (अज्ञानमूल चित्त) के अंतर्गत आता है।

संक्षिप्त सार

विचिकिच्छासम्पयुत्तमेकं चित्त = ऐसा चित्त जो संदेह, संशय और अज्ञान से प्रभावित हो।
यह अकुशल चित्त होता है और व्यक्ति को भ्रम, अनिर्णय एवं आध्यात्मिक प्रगति से दूर करता है।

उद्धच्चसम्पयुत्तमेकं

  • उद्धच्च + सम्पयुत्तं + एकं
  1. उद्धच्च (Uddhacca)
    • उद् (ऊपर, उच्च) + च्‍च (चंचलता, चपलता)
    • अर्थात मन की अस्थिरता, चंचलता, व्याकुलता।
    • अभिधम्म दर्शन में ‘उद्धच्च’ का अर्थ मन की अशांत और चंचल स्थिति से है, जिसमें मन इधर-उधर भटकता रहता है और एकाग्र नहीं हो पाता।
    • यह मोहमूल (अज्ञानजन्य) चित्त का एक लक्षण है।
  2. सम्पयुत्तं (Sampayutta)
    • सम् (साथ) + पयुत्त (संयुक्त, संबद्ध)
    • अर्थात जो किसी अन्य चीज़ के साथ गहराई से जुड़ा हुआ हो।
  3. एकं (Eka)
    • एक (एक मात्र, एक विशिष्ट)
    • यहाँ यह एक प्रकार के चित्त को दर्शाता है।

अन्वय

  • उद्धच्चसम्पयुत्तमेकं = उद्धच्चेन सम्पयुत्तं एकं चित्तं
  • अर्थात ऐसा चित्त जो उद्धच्च (मानसिक चंचलता, व्याकुलता) के साथ जुड़ा हुआ है और जो एक प्रकार का है।

अर्थ

‘उद्धच्चसम्पयुत्तं चित्त’ वह चित्त होता है जो मानसिक चंचलता, व्याकुलता, और ध्यान-अयोग्यता से प्रभावित होता है। यह अकुशल (अकुसल) चित्त की श्रेणी में आता है, क्योंकि यह व्यक्ति को ध्यान, मनन, और एकाग्रता से दूर करता है। यह मोहमूल (अज्ञानमूल) चित्त के अंतर्गत आता है और अविपश्यना (सही दृष्टिकोण की कमी) का लक्षण है। इस चित्त में व्यक्ति एकाग्र नहीं रह पाता, उसका मन इधर-उधर भटकता रहता है, और वह किसी भी चीज़ पर ठहरकर विचार नहीं कर पाता। यह विशेष रूप से विपश्यना (सतत अवलोकन) और समाधि (एकाग्रता) की साधना में बाधा डालता है।

संक्षिप्त सार

उद्धच्चसम्पयुत्तमेकं चित्त = ऐसा चित्त जो मानसिक चंचलता और व्याकुलता से प्रभावित हो।
यह अकुशल चित्त होता है और व्यक्ति को एकाग्रता एवं आध्यात्मिक प्रगति से दूर करता है।

अहेतुकचित्तं

  • अहेतुक + चित्तं
  1. अहेतुक (Ahetuka)
    • (नकारात्मक उपसर्ग, ‘नहीं’) + हेतुक (हेतु सहित, कारण सहित)
    • अर्थात जिसका कोई कारण (हेतु) नहीं हो।
    • अभिधम्म दर्शन में “हेतु” से तात्पर्य “जड़ (root cause) या मूल कारक से है, जो किसी विशेष चित्त (मानसिक अवस्था) को उत्पन्न करता है।
    • “अहेतुक” का अर्थ “बिना मूल कारण या जड़ कारक के उत्पन्न हुआ चित्त” है।
  2. चित्तं (Citta)
    • चित् (सोचना, जानना, अनुभव करना) + (भाववाचक प्रत्यय)
    • अर्थात मनोवृत्ति, चित्त, मानसिक अवस्था।

अन्वय

  • अहेतुकचित्तं = अहेतुकं चित्तं
  • अर्थात ऐसा चित्त जो किसी मूल कारण (हेतु) से उत्पन्न नहीं हुआ हो।

अर्थ

‘अहेतुकचित्तं’ वह चित्त होता है जो किसी मूल कारण (हेतु) से उत्पन्न नहीं होता।

अभिधम्म में चित्त तीन प्रमुख श्रेणियों में बंटा होता है—

  1. सहेतुकचित्तं (जिसमें मूल कारण होते हैं)
  2. अहेतुकचित्तं (जिसमें कोई मूल कारण नहीं होते)
  3. लोभ, द्वेष और मोह के साथ जुड़े चित्त

अहेतुकचित्त मुख्यतः तीन प्रकार के होते हैं:

  1. अकुसलविपाकचित्त (अशुभ कर्मों के फलस्वरूप उत्पन्न चित्त)
  2. कुसलविपाकचित्त (शुभ कर्मों के फलस्वरूप उत्पन्न चित्त)
  3. अहेतुककिरियाचित्त (ऐसा चित्त जो निष्क्रिय है, जैसे अरहंतों का हसितुप्पादचित्त)

विशेषताएँ:

  • यह चित्त लोभ (राग), द्वेष (द्वेष) और मोह (अज्ञान) जैसे मूल कारकों से उत्पन्न नहीं होता।
  • यह अधिकतर सेंसरी परसेप्शन (संवेदी अनुभूति) और अन्य प्रतिक्रियात्मक चित्तों से संबंधित होता है।
  • पंचविज्ञान (चक्षु, स्रोत, घ्राण, जिह्वा, कायविज्ञान) अहेतुकचित्त के अंतर्गत आता है।

संक्षिप्त सार

अहेतुकचित्तं = वह चित्त जो बिना किसी मूल कारण (हेतु) के उत्पन्न हो।
यह सहेतुकचित्त से भिन्न है, क्योंकि इसमें लोभ, द्वेष, और मोह जैसे कारण मौजूद नहीं होते।
यह मुख्य रूप से संवेदी अनुभूतियों और निष्क्रिय प्रतिक्रियाओं से संबंधित होता है।

चक्खुविञ्ञाणं

  • चक्खु + विञ्ञाणं
  1. चक्खु (Cakkhu)
    • संस्कृत: चक्षु
    • अर्थ: नेत्र, दृष्टि, आँख।
    • अभिधम्म में ‘चक्खु’ का प्रयोग विशेष रूप से भौतिक नेत्र (Physical eye) और दृष्टि-संबंधी संज्ञान (Visual perception) के लिए किया जाता है।
  2. विञ्ञाणं (Viññāṇa)
    • वि + ज्ञा + ण (विशेष रूप से जानना)
    • अर्थ: संज्ञान, चेतना, ज्ञान प्राप्त करने की क्रिया।
    • अभिधम्म में “विञ्ञाणं” का तात्पर्य चेतना (Consciousness) या संज्ञान (Cognition) से होता है।

अन्वय

  • चक्खुविञ्ञाणं = चक्खुं निस्साय उत्पन्नं विञ्ञाणं
  • अर्थात ऐसा संज्ञान (ज्ञान) जो चक्षु (आँख) के आधार पर उत्पन्न होता है।

अर्थ

‘चक्खुविञ्ञाणं’ वह चित्त होता है जो आँख के माध्यम से उत्पन्न होने वाले दृश्य बोध (Visual Consciousness) से संबंधित है। यह पंचविज्ञान (पाँच संवेदी चेतनाओं) में से एक है। जब कोई वस्तु आँखों के सामने आती है, तब चक्षु और रूप के संयोग से यह नेत्र-विज्ञान (Eye Consciousness) उत्पन्न होता है। यह सिर्फ देखने तक सीमित होता है, इसका अर्थ-बोध या मूल्यांकन मनोद्वारविज्ञान (Mānadvāra Viññāṇa) द्वारा किया जाता है। यह अहेतुकचित्तं (बिना मूल कारण के उत्पन्न होने वाला चित्त) की श्रेणी में आता है।

संक्षिप्त सार

 चक्खुविञ्ञाणं = आँखों के माध्यम से उत्पन्न होने वाली चेतना या संज्ञान।
यह पाँच संवेदी विज्ञानों में से एक है, जो देखने (दृश्य अनुभूति) से संबंधित है।
इसमें केवल “देखना” शामिल होता है, न कि वस्तु का मूल्यांकन या विश्लेषण।

चित्त

चित्त का अभिप्राय मन, चेतना या विज्ञान है। वह तत्व जो अनुभाव करता है उसे चित्त कहते है। यह स्थायी नहीं होता, बल्कि यह हर क्षण उत्पन्न और नष्ट होता रहता है। चित्त वह है जो विषय को ग्रहण करता है। यह अपने विषय को ग्रहण करता है और उसी के अनुसार प्रतिक्रिया करता है। चित्त अकेला नहीं होता, बल्कि इसके साथ मानसिक कारक जुड़े होते है। परमत्थदीपनी में का गया है कि ‘चिन्तेतीति चित्तं’ अर्थात् जो विचार करता है, वह चित्त है।

कामावचर

कामावचर चित्त वे चित्त हैं जो कामधातु में कार्य करते हैं। यहां कामधातु का अभिप्राय उस अवस्था है जहाँ इंद्रियां रूप, शब्द, रस, गंध और स्पर्श से के प्रभाव में रहती हैं।

रूपावचर

रूपावचर चित्त वे चित्त होते हैं, जो रूपध्यान के पाँच स्तरों में काम करते हैं। ये कामधातु से ऊपर और अरूपधातु से नीचे होते हैं।

अरूपावचर

निब्बानं‘वानतो निक्खन्तं ति निब्बानं’ अर्थात् वान नामक तृष्णा से रहित होने के कारण निर्वाण कहा जाता है। अत: जो तृष्णा का आलम्बन नहीं बनता है उसे निर्वाण कहते है।

चतुधा देसना (चार वर्गीकरण में धम्म देशना)
भगवान बुद्ध ने धम्म को इन चार वर्गों में विभाजित करके समझाया, जो कि अभिधम्म का आधार हैं। इसके साथ ही, बुद्ध ने चार आर्यसत्यों को भी इसी के माध्यम से प्रकट किया—

1. दुक्ख सच्च (दुःख सत्य) → रूप एवं चित्त का समावेश।

2. दुक्खसमुदय सच्च (दुःख उत्पत्ति का सत्य) → चेतसिकों में तृष्णा (तण्हा) का समावेश।

3. दुक्खनिरोध सच्च (दुःख निरोध का सत्य) → निब्बान का समावेश।

4.दुक्खनिरोधगामिनी प्रतिपदा सच्च (दुःख निरोध की ओर जाने वाला मार्ग) → चित्त, चेतसिक, और अन्य कारक सम्मिलित।

चित्त को वर्गीकृत करने के लिए वेदना एक मुख्य कारक होती है—

इसमें वेदना को पाँच प्रकारों में विभाजित किया गया है—

1. सुख वेदना → शारीरिक सुख, जैसे आरामदायक जल में स्नान।

2. दुक्ख वेदना → शारीरिक पीड़ा, जैसे जलना, चोट लगना।

3.सोमनस्स वेदना → मानसिक आनंद, जैसे किसी प्रियजन से मिलना।

4. दोमनस्स वेदना → मानसिक दुःख, जैसे अपमानित होना।

5. उपेक्खा वेदना → न सुख, न दुःख, चित्त का अभिप्राय मन, चेतना या विज्ञान है।

 आठ प्रकार के लोभ-सहगत चित्त:

क्रमचित्त का प्रकारसंवेदना (वेदना)दृष्टि (दिट्ठि)संकल्प (सङ्खार)
1सोमनस्स-सहगत, दिट्ठि-संपयुत्त, असङ्खारिकआनंदमिथ्या दृष्टिसहज
2सोमनस्स-सहगत, दिट्ठि-संपयुत्त, ससङ्खारिकआनंदमिथ्या दृष्टिसंकल्प सहित
3सोमनस्स-सहगत, दिट्ठि-विप्पयुत्त, असङ्खारिकआनंदमिथ्या दृष्टि रहितसहज
4सोमनस्स-सहगत, दिट्ठि-विप्पयुत्त, ससङ्खारिकआनंदमिथ्या दृष्टि रहितसंकल्प सहित
5उपेक्षा-सहगत, दिट्ठि-संपयुत्त, असङ्खारिकउपेक्षामिथ्या दृष्टिसहज
6उपेक्षा-सहगत, दिट्ठि-संपयुत्त, ससङ्खारिकउपेक्षामिथ्या दृष्टिसंकल्प सहित
7उपेक्षा-सहगत, दिट्ठि-विप्पयुत्त, असङ्खारिकउपेक्षामिथ्या दृष्टि रहितसहज
8उपेक्षा-सहगत, दिट्ठि-विप्पयुत्त, ससङ्खारिकउपेक्षामिथ्या दृष्टि रहितसंकल्प सहित

आचार्य अनुरुद्ध का व्यक्तित्व एवं कृतित्व

भूमिका —  सेट्ठे कञ्‍चिवरे रट्ठे, कावेरिनगरे वरे।
                            कुले सञ्‍जातभूतेन, बहुस्सुतेन ञाणिना॥

परमत्थविनिच्छय के इस गाथा से ज्ञात होता है कि आचार्य अनुरुद्ध का जन्म दक्षिण भारत में स्थित, श्रेष्ठ कांचीवर राज्य के उत्कृष्ट कावेरी नगर में एक उत्तम कुल में  हुआ था। ये अत्यधिक विद्वान और ज्ञान से संपन्न थे। इनके बारे मे कहा गया है कि ‘अनुरुद्धेन थेरेन, अनिरुद्धयसस्सिना। तम्बरट्ठे वसन्तेन, नगरे तञ्‍जनामके॥’ अर्थात् अनुरुद्ध एक सम्मानित भिक्षु थे, उनकी प्रसिद्धि की तुलना अनिरुद्ध से की गई है, जो कि भगवान बुद्ध के प्रधान शिष्यों में से एक थे। श्रीलंका या दक्षिण भारत में तंज नामक कोई नगर रहा होगा जहां आचार्य अनुरुद्ध निवास करते थे। तंज संभवत: तंजावुर हो सकता है, जो इस समय दक्षिण भारत में है। अथवा श्रीलंका का कोई नगर रहा होगा। जिसमें रहते हुए किसी वरिष्ठ भिक्षु के अनुरोध पर महाविहार के विद्वान भिक्षुओं के अध्ययन एवं पाठ के लिए परमत्थविनिच्छय नामक ग्रन्थ की रचना किया। आचार्य अनुरुद्ध ने महाविहार परंपरा से जुड़कर अभिधम्म अध्ययन का विस्तार किया। उनके समय में महाविहार बौद्ध शिक्षा का एक प्रमुख केंद्र था, और उन्होंने इसी परंपरा में रहकर अनेक ग्रंथों की रचना की।

आचार्य अनुरुद्ध को विशेष रूप से ‘अभिधम्मत्थसंगहो’  की रचना के लिए जाना जाता है। उन्होंने श्रीलंका के महाविहार में रहकर अभिधम्म की शिक्षा दी और इसके प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनके ग्रंथों ने न केवल श्रीलंका, बल्कि पूरे दक्षिण एवं दक्षिण-पूर्व एशिया में अभिधम्म के अध्ययन को लोकप्रिय बनाया। जो आज भी बौद्ध विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में अभिधम्म अध्ययन के लिए आधारभूत ग्रंथ मानी जाती हैं। आचार्य अनुरुद्ध ने बताया कि मन क्षणभंगुर होता है और निरंतर परिवर्तनशील रहता है। चित्त और चेतसिक के संयोग से व्यक्ति का नैतिक आचरण बनता है, जिसे अभिधम्म के सिद्धांतों से समझा जा सकता है। उन्होंने ध्यान साधना को बौद्ध तत्त्वज्ञान से जोड़कर समझाने का प्रयास किया है। उनके ग्रंथों में यह स्पष्ट किया गया है कि किस प्रकार ध्यान और सतिपठ्ठान से व्यक्ति निर्वाण की ओर बढ़ सकता है। उन्होंने पञ्चखन्ध और चार आर्यसत्य के परिप्रेक्ष्य में ध्यान प्रक्रिया को विस्तार से समझाया है।

बुद्धदत्त, बुद्धघोष और धम्मपाल की रचनाओं के बाद आचार्य अनुरुद्ध के ग्रन्थ ‘अभिधम्मत्थसङ्गहो’ का पालि साहित्य में विशेष स्थान है। अभिधम्मपिटक के समस्त विषयवस्तु इसमें संक्षेप और सरलता के साथ प्रस्तुत किए गए हैं। इसी कारण, बुद्धघोष जैसे आचार्यों की अट्ठकथाओं के उपलब्ध होने के बावजूद, सभी बौद्ध देशों में अभिधम्म अध्ययन प्रायः इसी ग्रंथ से प्रारंभ किया जाता है। आचार्य अनुरुद्ध के काल को लेकर विद्वानों के बीच विभिन्न मत प्रचलित हैं। कुछ विद्वान आचार्य अनुरुद्ध को 8वीं, कुछ 10वीं, और कुछ 12वीं शताब्दी का मानते हैं, जबकि अन्य उन्हें आचार्य बुद्धघोष और आचार्य धर्मपाल के बीच का विद्वान स्वीकार करते हैं। अधिकांश सम्प्रदायिक विचारक उन्हें बुद्धवंस-अट्ठकथा, विनयविनिच्छय, और अभिधम्मावतार जैसे ग्रंथों के रचयिता आचार्य बुद्धदत्त का गुरुभाई मानते हैं। यदि यह मत सही है, तो आचार्य बुद्धदत्त का समय पहले से निर्धारित होने के कारण, आचार्य अनुरुद्ध के काल का निर्धारण भी सहज हो सकता है।

आचार्य अनुरुद्ध बौद्ध अभिधम्म परंपरा के एक प्रमुख विद्वान थे। उन्होंने विशेष रूप से अभिधम्म के गूढ़ तत्वों को सरल और व्यवस्थित रूप में प्रस्तुत करने के लिए कई महत्वपूर्ण ग्रंथों की रचना की। उनका पहला ग्रन्थ परमत्थविनिच्छय है, जिसके विषय में कहा गया है कि ‘परमत्थविनिच्छयं नाम गन्थो सङ्घरक्खितेन थेरेन आयाचितेन अनुरुद्धाचारियेन कतो।’ अर्थात् परमत्थविनिच्छय नामक ग्रंथ को संघरक्खित थेर के अनुरोध पर आचार्य अनुरुद्ध ने लिखा। यह ग्रन्थ चार परमार्थ धर्मों का विश्लेषण करता है। जिसमें अभिधम्म की गूढ़ शिक्षाओं की व्याख्या किया गया है। इसके अन्तर्गत चित्त, चेतसिक, रूप और निब्बान की गहन व्याख्या प्रस्तुत किया गया है। यह ग्रन्थ बौद्ध साधकों के लिए एक मार्गदर्शक की भूमिका निभाने के साथ-साथ न केवल अभिधम्म दर्शन की समझ विकसित करता है, बल्कि इसे व्यावहारिक ध्यान और मोक्ष के मार्ग से भी जोड़ता है।

अभिधम्मत्थसंगहो का परिचय

आचार्य अनुरुद्ध द्वारा रचित तीसरा ग्रन्थ अभिधम्मत्थसंगहो है। इस ग्रन्थ के गन्थारम्भकथा में आचार्य अनुरुद्ध कहते हैं कि ‘सम्मासम्बुद्धमतुलं , ससद्धम्मगणुत्तमं। अभिवादिय भासिस्सं, अभिधम्मत्थसङ्गहं॥’ अर्थात् मैं उस अतुलनीय सम्मासम्बुद्ध को, जो सद्धम्म तथा उत्तम संघ सहित हैं, उन्हें अभिवादन करके, अभिधम्म के अर्थों का संग्रह प्रस्तुत करूँगा।’ आचार्य ने इस ग्रन्थ में चार परमार्थ धर्मों का वर्णन करते हुए कहा है कि ‘ तत्थ वुत्ताभिधम्मत्था, चतुधा परमत्थतो। चित्तं चेतसिकं रूपं, निब्बानमिति सब्बथा।। अर्थात् यहां अभिधर्म के अर्थ में चार परमार्थ कहे गये हैं, जो चित्त, चेतसिक, रूप और निर्वाण के रूप में जाने जाते हैं।

चार परमार्थ

वर्गपरिभाषाप्रकारलक्षणस्वरूपउदाहरण
चित्त चित्त वह तत्व है जो अनुभव करता है, यानी चेतनाकुल 89 प्रकारकिसी वस्तु को ग्रहण करने, पहचानने व अनुभव करने की क्षमतायह अनित्य है, हर क्षण उत्पन्न होकर समाप्त होता है।चक्खु विज्ञान आदि
चेतसिक वे मानसिक कारक जो चित्त के साथ उत्पन्न होते हैं और उसे प्रभावित करते हैं।52 प्रकारचित्त की स्थिति और प्रकृति को नियंत्रित करते हैं।यह चित्त के बिना नहीं होता, बल्कि चित्त के साथ सह-उत्पन्न होता है।वेदना, संज्ञा, एकाग्रता  आदि।
रूप भौतिक तत्व जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से विद्यमान होते हैं।कुल 28 प्रकार चित्त व चेतसिक के विपरीत यह ठोस तत्व है।यह परिवर्तनशील है, लेकिन चित्त और चेतसिक से अधिक स्थायी होता है।पृथ्वी धातु, जल धातु, तेजो धातु आदि।
निब्बानसमस्त क्लेशों और दुखों से मुक्ति की परम अवस्था।यह सङ्खात तत्व है, इसका कोई भेद नहीं।यह जन्म-मरण चक्र (संसार) का अंत है।यह स्थायी है, परिवर्तनरहित है, लेकिन वर्णनातीत है।अर्हत अवस्था प्राप्त होने पर अनुभव किया जाने वाला परम शांति।

यह ग्रंथ अभिधम्मपिटक के जटिल विषयों का सार प्रस्तुत करता है और अभिधम्म दर्शन की मूलभूत समझ प्रदान करता है। आचार्य अनुरुद्ध ने इस ग्रंथ में अभिधम्म के मूल तत्वों को सरल, संक्षिप्त और व्यवस्थित रूप में प्रस्तुत किया, ताकि विद्यार्थी और साधक इसे आसानी से समझ सकें। अभिधम्मत्थसङ्गहो के विषय में कहा गया है कि अभिधम्मत्थसङ्गहं नाम गन्थो नम्म नामेन उपासकेन आयाचितेन अनुरुद्धाचारियेन कतो। अर्थात् अभिधम्मत्थसङ्गहो नामक ग्रंथ नम्म नामक उपासक के अनुरोध पर आचार्य अनुरुद्ध ने लिखा। आचार्य अनुरुद्ध कहते है कि चारित्तसोभितविसालकुलोदयेन, सद्धाभिवुड्ढपरिसुद्धगुणोदयेन। नम्पव्हयेन पणिधाय परानुकम्पं, यं पत्थितं पकरणं परिनिट्ठितं तं॥ उत्तम आचरण से सुशोभित और महान कुल में जन्म लेने के कारण, बढ़ी हुई श्रद्धा और शुद्ध गुणों के उदय के कारण, बुद्ध-धम्म-संघ के प्रति अपार श्रद्धा रखते हुए, दूसरों के प्रति करुणा का संकल्प करके जिस ग्रंथ की इच्छा की गई थी, वह पूर्ण रूप से संकलित कर दिया गया। उस महान पुण्य के प्रभाव से, जो शीतल और कल्याणकारी मूल (धम्म) से उत्पन्न हुआ है, जो धान्य और पुण्य से समृद्ध, आनंदमय और आयु को उज्ज्वल बनाने वाला है, प्रज्ञा से शुद्ध, उत्तम गुणों से शोभित और लज्जाशील भिक्षु इस ग्रंथ को पुण्य और समृद्धि के उदय के लिए मंगलकारी मानें। अभिधम्मत्थसंगहो अभिधम्म दर्शन की गूढ़ता को सरल रूप में प्रस्तुत करने वाला एक अनूठा ग्रंथ है। यह श्रीलंका, बर्मा, थाईलैंड और अन्य बौद्ध देशों में अभिधम्म अध्ययन के लिए आधारभूत ग्रंथ माना जाता है। इसके माध्यम से बौद्ध दर्शन, मनोविज्ञान, कर्म सिद्धांत, और निर्वाण मार्ग को सहज रूप से समझाया गया है। अभिधम्मत्थसंगहो के इन नौ परिच्छेदों में चित्त, चेतसिक, रूप, कारण-परिणाम संबंध और ध्यान साधना के विषयों को क्रमबद्ध और सुगठित रूप में प्रस्तुत किया गया है

    1. चित्त परिच्छेद – इसमें चित्त के भेदों का वर्णन किया गया है। चित्त को उसके गुणों, प्रकारों, और मानसिक अवस्थाओं के आधार पर विभाजित किया गया है। यह परिच्छेद बताता है कि चित्त कैसे उत्पन्न होता है और उसके विभिन्न कार्य क्या हैं।
    2. चेतसिक परिच्छेद – इसमें चैतसिक का वर्णन किया गया है। चेतसिक वे मानसिक गुण हैं जो चित्त के साथ उत्पन्न होते हैं। यह परिच्छेद 52 चैतसिकों को उनके कार्यों और विशेषताओं के साथ विस्तृत रूप में समझाता है।
    3. पकिण्णक परिच्छेद – इसमें विविध मानसिक और नैतिक तत्वों की चर्चा की गई है, जैसे – जीवों की मानसिक प्रवृत्तियाँ, चेतना का स्वभाव, और शील (नैतिकता) से संबंधित विषय।
    4. वीथि परिच्छेद – इसमें चित्त की प्रक्रिया (विथि) का वर्णन किया गया है। यह बताता है कि चित्त बाहरी और आंतरिक वस्तुओं को किस प्रकार ग्रहण करता है और उनसे कैसे प्रतिक्रिया करता है।
    5. वीथिमुत्त परिच्छेद – इसमें विथि से स्वतंत्र चित्त (अविथि चित्तों) का वर्णन किया गया है। यह चित्त उन अवस्थाओं को दर्शाता है जो सामान्य चित्त प्रवाह से अलग होते हैं, जैसे ध्यान और समाधि के उच्च स्तर।
    6. रूप परिच्छेद – इसमें रूप (भौतिक तत्वों) का विश्लेषण किया गया है। इसमें 28 प्रकार के रूपों का वर्णन किया गया है और उनके उत्पत्ति के कारणों को समझाया गया है।
    7. समुच्चय परिच्छेद – इसमें चित्त, चेतसिक और रूप के पारस्परिक संबंधों को बताया गया है। यह परिच्छेद विभिन्न तत्वों के संयोजन को स्पष्ट करता है।
    8. पच्चय परिच्छेद –इसमें कारण और परिणाम का विवरण दिया गया है। यह ‘पट्ठान’ के सिद्धांतों पर आधारित है और यह दर्शाता है कि चित्त, चेतसिक और रूप परस्पर किस प्रकार आश्रित हैं।

9. कम्मट्ठान परिच्छेद – इसमें भवनात्मक ध्यान और विपश्यना-कर्मस्थान का वर्णन किया गया है। इसमें बताया गया है कि विभिन्न ध्यान पद्धतियाँ किस प्रकार चित्त को शुद्ध करती हैं और निर्वाण की ओर ले जाती है।

चित्त

आरम्मणं चिन्तेतीति चित्तं अर्थात जो आलम्बन को जानता है वह चित्त है। चित्त को हम विज्ञान कहते हैं जो जानने का काम करता है अर्थात जो जानने के लक्षण वाला है वह सब एक में करके चित्त है। हम कह सकते हैं कि चित्त का स्वभाव मात्र जानना है। फिर भी जानने मात्र से एक होने के कारण भी इसकी उत्पत्ति कुशल, अकुशल और अव्याकृत तीन प्रकार से होता है। जो कुशल है उसके कामावचर, रूपावचर, अरूपावचर और लोकोत्तर ये चार भेद होते हैं, अकुशल केवल कामावचर होता है, जबकि अव्याकृत के भी चार भेद कामावचर, रूपावचर, अरूपावचर और लोकोत्तर होते हैं। चूंकि चित्त या मन ये सब अर्थ से एक हैं इसलिए हम कुशल के चारो भेदों को कामावचरकुशल, रूपावचरकुशल, अरूपावचरकुशल और लोकोत्तरकुशल कह सकते हैं। इसी प्रकार अकुशल को कामावचर-अकुशल और अव्याकृत को कामावचर-अव्याकृत, रूपावचर-अव्याकृत, अरूपावचर-अव्याकृत और लोकोत्तर-अव्याकृत कहते हैं।

इस प्रकार कुल मिलाकर चित्त 89 प्रकार का होता है, जिसके अन्तर्गत 54 कामावचर, 15 रूपावचर, 12 अरूपावचर और 8 लोकोत्तर चित्त आते हैं।

द्वादसाकुसलानेवं, कुसलानेकवीसति।

छत्तिंसेव विपाकानि, क्रियचित्तानि वीसति॥

अर्थात् इस गाथा माध्यम से चित्त का वर्गीकरण इस प्रकार है —

  1. द्वादस अकुसलानि → 12 अकुसल (अशुभ) चित्त होते हैं।
  2. एवं कुसलानेकवीसति → इसी प्रकार, 21 कुसल (शुभ) चित्त होते हैं।
  3. छत्तिंसेव विपाकानि → 36 विपाक (फल देने वाले) चित्त होते हैं।
  4. क्रियचित्तानि वीसति → 20 क्रिया (निष्प्रयोजन या कर्म-मुक्त) चित्त होते हैं।

कुल चित्तों की संख्या: – 12 (अकुसल) + 21 (कुसल) + 36 (विपाक) + 20 (क्रिया) = 89 चित्त

चतुपञ्‍ञासधा कामे, रूपे पन्‍नरसीरये।

चित्तानि द्वादसारुप्पे, अट्ठधानुत्तरे तथा॥

अर्थात् इस गाथा के माध्यम से चित्त का वर्गीकरण इस प्रकार है—

  1. चतुपञ्‍ञासधा कामेकामधातु (इंद्रिय-लोक) में 54 चित्त होते हैं।
  2. रूपे पन्‍नरसीरयेरूपधातु (सूक्ष्म रूप लोक) में 15 चित्त होते हैं।
  3. चित्तानि द्वादसारुप्पेअरूपधातु (निर्माण रहित लोक) में 12 चित्त होते हैं।
  4. अट्ठधानुत्तरे तथालोकत्तर (निर्वाणगामी) चित्त 8 होते हैं।

कुल चित्तों की संख्या:- 54 (कामधातु) + 15 (रूपधातु) + 12 (अरूपधातु) + 8 (लोकोत्तर) = 89 चित्त

कामावचरं चित्तं

आठ लोभसहगत चित्त

  1. सोमनस्ससहगतं दिट्ठिगतसम्पयुत्तं असङ्खारिकमेकं
  2. सोमनस्ससहगतं दिट्ठिगतसम्पयुत्तं ससङ्खारिकमेकं
  3. सोमनस्ससहगतं दिट्ठिगतविप्पयुत्तं असङ्खारिकमेकं
  4. सोमनस्ससहगतं दिट्ठिगतविप्पयुत्तं ससङ्खारिकमेकं
  5. उपेक्खासहगतं दिट्ठिगतसम्पयुत्तं असङ्खारिकमेकं
  6. उपेक्खासहगतं दिट्ठिगतसम्पयुत्तं ससङ्खारिकमेकं
  7. उपेक्खासहगतं दिट्ठिगतविप्पयुत्तं असङ्खारिकमेकं
  8. उपेक्खासहगतं दिट्ठिगतविप्पयुत्तं ससङ्खारिकमेकन्ति इमानि अट्ठापि लोभसहगतचित्तानि नाम।

दो दोससहगत चित्त

  1. दोमनस्ससहगतं पटिघसम्पयुत्तं असङ्खारिकमेकं
  2. दोमनस्ससहगतं पटिघसम्पयुत्तं ससङ्खारिकमेकन्ति इमानि द्वेपि पटिघसम्पयुत्तचित्तानि नाम।

दो मोहसहगत चित्त

  1. उपेक्खासहगतं विचिकिच्छासम्पयुत्तमेकं
  2. उपेक्खासहगतं उद्धच्‍चसम्पयुत्तमेकं

सात प्रकार के अकुसल विपाक चित्त

  1. उपेक्खासहगतं चक्खुविञ्‍ञाणं,
  2. उपेक्खासहगतं सोतविञ्‍ञाणं,
  3. उपेक्खासहगतं घानविञ्‍ञाणं,
  4. उपेक्खासहगतं जिव्हाविञ्‍ञाणं,
  5. दुक्खसहगतं कायविञ्‍ञाणं,
  6. उपेक्खासहगतं सम्पटिच्छनचित्तं,
  7. उपेक्खासहगतं सन्तीरणचित्तं

आठ प्रकार के कुसल विपाक अहेतुक चित्त

  1. उपेक्खासहगतं कुसलविपाकं चक्खुविञ्‍ञाणं
  2. उपेक्खासहगतं कुसलविपाकं सोतविञ्‍ञाणं
  3. उपेक्खासहगतं कुसलविपाकं घानविञ्‍ञाणं
  4. उपेक्खासहगतं कुसलविपाकं जिव्हाविञ्‍ञाणं
  5. सुखसहगतं कायविञ्‍ञाणं
  6. उपेक्खासहगतं सम्पटिच्छनचित्तं
  7. सोमनस्ससहगतं सन्तीरणचित्तं
  8. उपेक्खासहगतं सन्तीरणचित्तं

तीन अहेतुक किरिया चित्त

  1. उपेक्खासहगतंपञ्‍चद्वारावज्‍जनचित्तं
  2. तथा मनोद्वारावज्‍जनचित्तं
  3. सोमनस्ससहगतं हसितुप्पादचित्तं

आठ कामावचर कुसल चित्त

  1. सोमनस्ससहगतं ञाणसम्पयुत्तं असङ्खारिकमेकं
  2. सोमनस्ससहगतं ञाणसम्पयुत्तं ससङ्खारिकमेकं
  3. सोमनस्ससहगतं ञाणविप्पयुत्तं असङ्खारिकमेकं
  4. सोमनस्ससहगतं ञाणविप्पयुत्तं ससङ्खारिकमेकं
  5. उपेक्खासहगतं ञाणसम्पयुत्तं असङ्खारिकमेकं
  6. उपेक्खासहगतं ञाणसम्पयुत्तं ससङ्खारिकमेकं
  7. उपेक्खासहगतं ञाणविप्पयुत्तं असङ्खारिकमेकं
  8. उपेक्खासहगतं ञाणविप्पयुत्तं ससङ्खारिकमेकं

आठ सहेतुक कामावचर विपाक चित्त

  1. सोमनस्ससहगतं ञाणसम्पयुत्तं असङ्खारिकमेकं
  2. सोमनस्ससहगतं ञाणसम्पयुत्तं ससङ्खारिकमेकं
  3. सोमनस्ससहगतंञाणविप्पयुत्तं असङ्खारिकमेकं
  4. सोमनस्ससहगतंञाणविप्पयुत्तं ससङ्खारिकमेकं
  5. उपेक्खासहगतं ञाणसम्पयुत्तं असङ्खारिकमेकं
  6. उपेक्खासहगतं ञाणसम्पयुत्तं ससङ्खारिकमेकं
  7. उपेक्खासहगतं ञाणविप्पयुत्तं असङ्खारिकमेकं
  8. उपेक्खासहगतं ञाणविप्पयुत्तं ससङ्खारिकमेकं

आठ सहेतुक कामावचर कुसल विपाक किरिया चित्त

  1. सोमस्ससहगतं ञाणसम्पयुत्तं असङ्खारिकमेकं
  2. सोमस्ससहगतं ञाणसम्पयुत्तं ससङ्खारिकमेकं
  3. सोमनस्ससहगतं ञाणविप्पयुत्तं असङ्खारिकमेकं
  4. सोमस्ससहगतं ञाणसम्पयुत्तं ससङ्खारिकमेकं
  5. उपेक्खासहगतं ञाणसम्पयुत्तं असङ्खारिकमेकं
  6. उपेक्खासहगतं ञाणसम्पयुत्तं ससङ्खारिकमेकं
  7. उपेक्खासहगतं ञाणविप्पयुत्तं असङ्खारिकमेकं
  8. उपेक्खासहगतं ञाणविप्पयुत्तं ससङ्खारिकमेकं

रूपावचरं चित्तं

पांच रूपावचर कुसल चित्त

  1. वितक्‍कविचारपीतिसुखेकग्गतासहितं पठमज्झानकुसलचित्तं
  2. विचारपीतिसुखेकग्गतासहितं दुतियज्झानकुसलचित्तं
  3. पीतिसुखेकग्गतासहितं ततियज्झानकुसलचित्तं
  4. सुखेकग्गतासहितं चतुत्थज्झानकुसलचित्तं
  5. उपेक्खेकग्गतासहितं पञ्‍चमज्झानकुसलचित्तं

पांच रूपावचर विपाक चित्त

  1. वितक्‍कविचारपीतिसुखेकग्गतासहितं पठमज्झानकुसलचित्तं
  2. विचारपीतिसुखेकग्गतासहितं दुतियज्झानकुसलचित्तं
  3. पीतिसुखेकग्गतासहितं ततियज्झानकुसलचित्तं
  4. सुखेकग्गतासहितं चतुत्थज्झानकुसलचित्तं
  5. उपेक्खेकग्गतासहितं पञ्‍चमज्झानकुसलचित्तं

पांच रूपावचर किरिया चित्त

  1. वितक्‍कविचारपीतिसुखेकग्गतासहितं पठमज्झानकुसलचित्तं
  2. विचारपीतिसुखेकग्गतासहितं दुतियज्झानकुसलचित्तं
  3. पीतिसुखेकग्गतासहितं ततियज्झानकुसलचित्तं
  4. सुखेकग्गतासहितं चतुत्थज्झानकुसलचित्तं
  5. उपेक्खेकग्गतासहितं पञ्‍चमज्झानकुसलचित्तं

अरूपावचर चित्तं

चार अरूपावचर कुसल चित्त

  1. आकासानञ्‍चायतनकुसलचित्तं
  2. विञ्‍ञाणञ्‍चायतनकुसलचित्तं
  3. आकिञ्‍चञ्‍ञायतनकुसलचित्तं
  4. नेवसञ्‍ञानासञ्‍ञायतनकुसलचित्त

चार अरूपावचर विपाक चित्त

  1. आकासानञ्‍चायतनकुसलचित्तं
  2. विञ्‍ञाणञ्‍चायतनकुसलचित्तं
  3. आकिञ्‍चञ्‍ञायतनकुसलचित्तं
  4. नेवसञ्‍ञानासञ्‍ञायतनकुसलचित्त

चार अरूपावचर विपाक चित्त

  1. आकासानञ्‍चायतनकुसलचित्तं
  2. विञ्‍ञाणञ्‍चायतनकुसलचित्तं
  3. आकिञ्‍चञ्‍ञायतनकुसलचित्तं
  4. नेवसञ्‍ञानासञ्‍ञायतनकुसलचित्त
चित्तों के प्रकारसंख्या
लोभमूलक चित्त8
दोस-मूलक चित्त2
मोह-मूलक चित्त2
अकुसल विपाक चित्त7
कुसल विपाक चित्त8
किरिया चित्त3
अहेतुक चित्त18
सोभन चित्त59 या 91
कामावचर सोभन चित्त24
रूपावचर सोभन चित्त15
अरूपावचर सोभन चित्त12
लोकुत्तर सोभन चित्त8
सहेतुक कामावचर चित्त24
कामावचर चित्त54
रूपावचर चित्त15
अरूपावचर चित्त12
लोकुत्तर चित्त8

अकुशल चित्त

 प्रकारसंख्याविवरण
लोभ मूलक चित्त8लोभ (आसक्ति)
दोस मूलक चित्त2द्वेस (क्रोध)
मोह मूलक चित्त2मोह (अज्ञान)
योग 12अकुशल चित्त

 

 

 

अहेतुक चित्त

प्रकारसंख्याविवरण
अकुसल-विपाक चित्त75 पञ्चविज्ञान + 1 सम्पटिच्छन + 1 सन्तीरण
कुसल-विपाक चित्त85 पञ्चविज्ञान + 1 सम्पटिच्छन + 2 सन्तीरण
क्रिया चित्त32 पञ्चविज्ञान + 1 सम्पटिच्छन
योग18अहेतुक चित्त

 

सोभन चित्त

प्रकारसंख्याविवरण
कामावचर सोभन चित्त248 कुसल + 8 विपाक + 8 किरिया
रूपावचर सोभन चित्त155 कुसल + 5 विपाक + 5 किरिया
अरूपावचर सोभन चित्त124 कुसल + 4 विपाक + 4 किरिया
लोकुत्तर सोभन चित्त84 कुसल + 4 फल
योग59सोभन चित्त

 

सहेतुक कामावचर चित्त

प्रकारसंख्याविवरण
कुसल चित्त8पुण्य कर्म उत्पन्न करने वाले चित्त
विपाक चित्त8पुण्य कर्मों के फलस्वरूप उत्पन्न चित्त
किरिया चित्त8अर्हतों के निष्क्रिय (क्रिया मात्र) चित्त
योग24सहेतुक कामावचर चित्तों की कुल संख्या

 

कामावचर चित्त

प्रकारसंख्याविवरण
विपाक चित्त23पुण्य और अपुण्य कर्मो का परिणाम
कुसल और अकुसल चित्त20पुण्य और अपुण्य कर्म उत्पन्न करने वाले
क्रिया चित्त11अर्हतों और के चित्त
योग54कामावचर चित्तों की कुल संख्या

रूपावचर चित्त

प्रकारसंख्याविवरण
कुसल चित्त5रूप-लोक में जन्म देने वाले पुण्यजनक चित्त
विपाक चित्त5रूप-लोक में जन्म के फलस्वरूप उत्पन्न चित्त
किरिया चित्त5अर्हतों के क्रियात्मक चित्त
योग15रूपावचर चित्तो की कुल संख्या

 

अरूपावचर चित्त

प्रकारसंख्याविवरण
कुसल चित्त4अरूपलोक-लोक में जन्म देने वाले पुण्यजनक चित्त
विपाक चित्त4अरूप-लोक में जन्म के फलस्वरूप उत्पन्न चित्त
किरिया चित्त4अर्हतों और बुद्धों के क्रियात्मक चित्त
योग12अरूपावचर चित्तों की कुल संख्या

 लोकुत्त चित्त

प्रकार संख्याविवरण
कुसल चित्त4लोकुत्तर पुण्यजनक चित्त(मग्गचित्)
विपाक चित्त4लोकुत्त फलदायक चित्त (फलचित्त)
योग8लोकुत्तर चित्तो की कुल संख्या

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बुद्धदत्त की जीवनी और रचनाएँ

बुद्धदत्त की जीवनी और रचनाएँ

बुद्धदत्त की जीवनी और रचनाएँ

बुद्धदत्त की जीवनी — आचार्य बुद्धदत्त पाँचवी शताब्दी में दक्षिणी भारत के चोल राज्य में उरगपुर के निवासी थे। इनके प्रारंभिक जीवन, शिक्षा और आचार्य परम्परा के बारे में अधिक जानकारी उपलब्ध नही है। इन्होंने लंका के अनुराधपुर स्तिथ महाविहार में जाकर भगवान बुद्ध के शासन-सम्बन्धी उच्च शिक्षा प्राप्त की थी। ये आचार्य बुद्धघोष के समकालीन थे

बुद्धदत्त की जीवनी और रचनाएँ  – भूमिका — महाकरूणीक तथागत भगवान गौतम बुद्ध के महापरिनिर्वाण के पश्चात् लगभग चौथी-पाँचवीं शताब्दी में मागधी भाषा में पालि-साहित्य की अट्ठकथा का लेखन कार्य प्रारम्भ हुआ। इस युग में बुद्धदत्त, बुद्धघोष और धम्मपाल तीन बड़े अट्ठकथाकार हुए। इस लेख में हम बुद्धदत्त की जीवनी और उनकी रचनाओं का उल्लेख करेगें।

बुद्धदत्त की जीवनी — आचार्य बुद्धदत्त पाँचवी शताब्दी में दक्षिणी भारत के चोल राज्य में उरगपुर के निवासी थे। इनके प्रारंभिक जीवन, शिक्षा और आचार्य परम्परा के बारे में अधिक जानकारी उपलब्ध नही है। इन्होंने लंका के अनुराधपुर स्तिथ महाविहार में जाकर भगवान बुद्ध के शासन-सम्बन्धी उच्च शिक्षा प्राप्त की थी। ये आचार्य बुद्धघोष के समकालीन थे।[i] बुद्धघोससुप्पत्ति[ii] के अनुसार आचार्य बुद्धदत्त, बुद्धघोस से पहले लंका में बुद्ध-वचनों के अध्ययनार्थ गये थे। और वही पर रहकर इन्होंने जिनालंकार, दन्तधातु और बोधिवंस को लिखा था। जब आचार्य बुद्धघोस बुद्धवचन को सिहंली से मागधी भाषा में रूपान्तर हेतु सिहंल दीव्प जा रहे थे, उसी समय आचार्य बुद्धदत्त सिहंल दीव्प से भारत आने के लिए प्रस्थान किया था। दोनों थेरों की नौकाएं आमने-सामने मिली। बुद्धदत्त ने बुद्धघोस को देखकर पूछा कि तुम्हारा क्या नाम है? और कहाँ जा रहे हो? तब आचार्य बुद्धघोस ने उनसे कहा मेरा नाम बुद्धघोष है, और जो ‘‘बुद्ध-उपदेश सिहंली भाषा में है। मैं उनका मागधी भाषा में रूपान्तर करने लंका जा रहा हूँ।’’ तब बुद्धदत्त ने उनसे कहा, ‘‘आवुस बुद्धघोस! मैं तुमसे पूर्व इस लंका दीव्प में बुद्ध-वचन को सिहंली भाषा से मागधी भाषा में रूपान्तरित करने के उद्देश्य से आया था। किन्तु मेरी आयु थोड़ी बची है, मैं अब अधिक नही जीऊँगा और इस काम को पूरा नहीं कर सकूँगा। तुम्ही साधु रूप से इस काम को पूरा करो। इस प्रकार आचार्य बुद्धदत्त लंका से लौटकर कावेरी नदी के तट पर निर्मित विहार में बैठकर पालि-अट्ठाकथाओं का लेखन कार्य किया। चूलगन्धवंस के गन्थकारकाचरिय-परिच्छेदो में आया है कि – ‘बुद्धदत्तोनामाचरियो विनयविनिच्छयो, उत्तरविनिच्छयो, अभिधम्मावतारो, बुद्धवंसस्स मधुरत्थविलासिनी नाम अट्ठकथाति, इमे चत्तारो गन्थे अकासि।[iii] अर्थात आचार्य बुद्धदत्त ने विनयविनिच्छय, उत्तरविनिच्छय, अभिधम्माअवतर और जो बुद्धवंस की  मधुरत्थविलासिनी नामक अट्ठाकथा है, इन्ही चार ग्रन्थों की रचना किया। इसी ग्रन्थ के ‘आचरियानं सञ्जातट्ठानपरिछेदो’ में इस बात का जिक्र है कि जो तेईस आचार्य जम्बुदीप से श्रीलंका गये, उनमें आचार्य बुद्धदत्त का नाम प्रथम है। इसी ग्रन्थ के ‘बुद्धदत्ताचरिय-गन्थदीपना’ में आया है कि – ‘बुद्धत्ताचरिय गन्थेसु पन विनय-विनिच्छयगन्थो अत्तनो सिस्सेन बुद्धसीहेन नाम थेरेन आयाचितेन बुद्धत्ताचरिया कतो। उत्तर-विनिच्छयगन्थो सङ्घपालेन नामेन थेरेन आयाचितेन बुद्धदत्ताचरियेन कतो। अभिधम्मावतारो नाम गन्थो अत्तनो सिस्सेन सुमति थेरेन आयाचितेन बुद्धदत्ताचरियेन कतो। बुद्धवंसस्स अट्ठकथा गन्थो तेनेव बुद्धसीहनाम थेरेन आयाचितेन बुद्धदत्ताचरियेन कतो।’[iv] अर्थात आचार्य बुद्धदत्त ने अपने ग्रन्थ विनय-विनिच्छय की रचना अपने शिष्य बुद्धसीह थेर की याचना पर किया। उत्तर-विनिच्छय की रचना सङ्पाल थेर की याचना पर किया। अभिधम्मावतारो की रचना अपने शिष्य सुमति थेर की याचना पर किया और बुद्धवंस की अट्ठकथा की रचना बुद्धसीह थेर की याचना पर किया। सद्धम्मसङ्गहो के सब्बप्पकरणकतथेरवण्णना में कहा गया कि –‘‘थेरेन बुद्धदत्तेन, रचितं यं मनोरमां। अभिधम्मावतारोति, लद्धनामेन विस्सुतं।।’[v] अर्थात बुद्धदत्त थेर द्वारा रचित ग्रन्थ अभिधम्मावतार के नाम से प्रतिद्ध हुआ। सासनवंस नामक ग्रन्थ के अनुसार पालि-साहित्य के अट्ठकथाकार आचार्य बुद्धदत्त ने जिनालंकार नामक ग्रन्थ की रचना की है। वे बुद्धघोष को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि- ‘मया आवुसो कतो जिनालंकारो अप्पसारो’ति।[vi] अर्थात आयुष्मान्! मैंने जिनालंकार नामक ग्रन्थ लिखा है, जो अल्पसार है। इस प्रकार आचार्य बुद्धदत्त जीवनपर्यंत बुद्ध शासन की सेवा कर, मरने के बाद तुषित-भवन में उत्पन्न हुए।

रचनाएँ — बुद्धदत्त द्वारा रचित अट्ठकथाएँ इस प्रकार हैं — 1. विनयविनिच्छय, 2. उत्तरविनिच्छय, 3. अभिधम्मावतार, 4. मधुरत्थविलासिनी।[vii]

  1. विनयविनिच्छय — इस ग्रन्थ में कुल 31 अध्याय हैं जिनके अन्तर्गत 3183 गाथाएँ हैं। पहले भिक्खु-विभंग के अन्तर्गत पाराजिक-कथा, संघादिसेस-कथा, अनियत-कथा, निस्सग्गिय-पाचित्तिय-कथा, पटिदेसनिय-कथा तथा सेखिय-कथा का विवरण है। इसी प्रकार भिक्खुनी-विभंग के अन्तर्गत पारजिक-कथा, संघादिसेस-कथा, निस्सग्गिय-पाचित्तिय-कथा, और पटिदेसनिय-कथा का विवेचन है।
  2. उत्तरविनिच्छय — इस ग्रन्थ में कुल 23 अध्याय हैं जिनके अन्तर्गत 969 गाथाएँ हैं। पहले भिक्खु-विभंग के अन्तर्गत पाराजिक-कथा, संघादिसेस-कथा, निस्सग्गिय-कथा, पाचित्तिय-कथा, पटिदेसनीय-कथा, सेखिय-कथा। इसी प्रकार भिक्खुनी-विभंग के अन्तर्गत पाराजिक-कथा, संघादिसेस-कथा, निस्सग्गिय-कथा, पाचित्तिय-कथा और पटिदेसनिय-कथा का विवेचन है। इस के अतिरिक्त चतुविपत्ति-कथा, अधिकरणच्चय-कथा, खन्धकपुच्छा-कथा, समुट्ठानसीस-कथा आदि का विवरण है।
  3. अभिधम्मावतार — अभिधम्मावतार गद्य-पद्य मिश्रित रचना है। इस ग्रन्थ में कुल 24 परिच्छेद हैं। प्रथम परिच्छेद में चित्त की गणना किया गया हैं। दुसरे परिच्छेद के चैतसिक निर्देश में 52 प्रकार के चैतसिको का जिक्र है। तीसरा परिच्छेद चैतसिक-विभाग-निर्देश है जिसके अन्तर्गत पद्य शैली में 52 प्रकार के चैतसिको का परिगणना किया गया है। चौथा परिच्छेद एकविधादि-निर्देश है। इसी प्रकार इस ग्रन्थ के अन्य परिच्छेदो में चित्त, चैतसिक, रूप और निर्वाण इन चारों का वर्गीकरण किया गया है।

5. मधुरत्थविलासिनी — मधुरत्थविलासिनी बुद्धवसं की अट्ठकथा है। बुद्धदत्त महाथेरा ने मधुत्थविलासिनी की निदानवण्णना में बुद्धवंस सम्बन्धी कई महत्त्वपूर्ण प्रश्न किये हैं और उनके उत्तर दिये हैं। सबसे पहले उन्होंने प्रश्न उठाया है कि बुद्धवंस का उपदेश किसने दिया है? अयं बुद्धवंसो केन देसितो? इस उत्तर में उन्होंने कहा है कि — ‘सब्बधम्मेसु अप्पटिहञाणचारेन दसबलेन चतुवेसारज्जविसारदेन धम्मराजेन धम्मस्सामिना तथागतेन सब्बञ्ञुना सम्मासम्बुद्धेन देसितो।[viii]  अर्थात् सभी धर्मों में अप्रतिम ज्ञान रखने वाले, दस बल प्राप्त, चारों वैशारद्य से विशारद धर्मराजा धर्मस्वामी तथागत सर्वज्ञ सम्यक् सम्बुद्ध के द्वारा दिया गया। अगला प्रश्न कत्थ देसितोति? अर्थात् कहाँ दिया गया, इसके उत्तर में उन्होंने कहा है कि —‘कपिलवत्थुमहानगरे निग्रोधाराममहाविहारे परमरूचिरसन्दस्सने देवमनुस्सनयननिपाभूते रतनचङ्कमे चङ्कमन्तेन देसितो। इसी प्रकार इस ग्रन्थ में सभी बुद्धों की तीस प्रकार की धर्मता का वर्णन किया गया है।

[i] पालि भाषा और साहित्य, इन्द्र चंद्र शास्त्री, हिंदी माध्यम कार्यान्वय निदेशालय दिल्ली विश्वविद्यालयष

[ii] बुद्धघोसुप्पत्ति, संपादक एवं अनुवादक डॉ.राजेश रंजन, सम्यक प्रकाशन नई दिल्ली।   

[iii] चूलगन्धवंस, गन्थकारकाचरिय-परिच्छेदो, विपश्यना विशोधन विन्यास, धम्मगिरि, इगतपुरी।

[iv] चूलगन्धवंस, बुद्धदत्ताचरिय-गन्थदीपना , विपश्यना विशोधन विन्यास, धम्मगिरि, इगतपुरी।

[v] सद्धम्मसङ्गहो, सब्बप्पकरणकतथेरवण्णना, विपश्यना विशोधन विन्यास, धम्मगिरि, इगतपुरी।

[vi] जिनालंकार, , विपश्यना विशोधन विन्यास, धम्मगिरि, इगतपुरी।

[vii] पालि-साहित्य का इतिहास, डां. भरतसिंह उपाध्याय, हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग

[viii] बुद्धवंस-अट्ठकथा,  मधुरत्थविलासिनी, विपश्यना विशोधन विन्यास, धम्मगिरि, इगतपुरी।

सिद्धार्थ गौतम द्वारा बुद्धत्व प्राप्ति

Attainment of Buddhahood by Siddhartha Gautama

सिद्धार्थ गौतम द्वारा बुद्धत्व प्राप्ति | Siddharth Gautam Dvaara Buddhatv Praapti

सिद्धार्थ गौतम द्वारा बुद्धत्व प्राप्ति | Siddharth Gautam Dvaara Buddhatv Praapti – भगवान बुद्ध कहते हैं कि बोधि से पहले बोधिसत्त्व होते समय मुझे ऐसा हुआ

भगवान बुद्ध कहते हैं कि बोधि से पहले बोधिसत्त्व होते समय मुझे ऐसा हुआ कि गृहवास जंजाल है, मैल का मार्ग है, प्रव्रज्या खुला स्थान है। इस नितान्त सर्वथा परिपूर्ण सर्वथा परिशुद्ध खरादे शंख जैसे उज्वल ब्रह्मचर्य का पालन घर में रहते हुए सम्भव नहीं है। क्यों न मैं सिर दाढी मुंड़ा कषाय वस्त्र पहनकर घर से बेघर हो प्रव्रजित हो जाउं। तब उन्होंने कहा कि-‘अपरेन समयेन दहरोव समानो सुसुकाळकेसो भद्रेन योब्बनेन समन्नागतो पठमेन वयसा अकामकानं मातापितूनं अस्सुमुखानं रूदन्तानं केसमस्सुं ओराहेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजिं।[1] अर्थात् उस समय मैं तरूण सुन्दर काले केशवाला भद्र यौवन से युक्त प्रथम वयस में माता-पिता को अश्रुमय रोते हुए छोड़कर सिर मुड़ाय कसाय वस्त्र पहन कर घर से बेघर हो प्रव्रजित हुआ। तब मैं प्रव्रजित हो अनुत्तर कुशल शांतिपद को खोजते जहां आलार कलाम था वहाँ गया। जाकर कालाम से कहा आवुस कालाम! मैं इस धर्म विनय में ब्रह्मचर्य वास करना चाहता हूँ। ऐसा कहने पर आलार कालाम ने मुझे कहा विहरो आयुष्मान! यह ऐसा धर्म है जिसमें विज्ञ पुरूष जल्द ही शीघ्र आचार्यत्व को स्वयं जानकर साक्षात्कार कर प्राप्तकर विहार करेगा। तब मैंने जल्द ही उस धर्म को पूरा कर लिया। इस धर्म को केवल श्रद्धा से स्वयं जानकर, साक्षात्कार कर, प्राप्तकर विहरने लगा। फिर मेरे मन में हुआ कि आलार कालाम जरूर इस धर्म को जानता देखता विहरता होगा। तब मैं जहां आलार कालाम था वहां गया, जाकर आलार कालाम से पूछा आवुस कालाम तुम इस धर्म को स्वयं जानकर, साक्षात्कार कर, प्राप्तकर कहाँ तक बतलाते हो? ऐसा कहने पर आलार कालाम ने आकिञ्‍चञ्‍ञायतनं[2] बतलाया। तब मुझे ऐसा हुआ कि आलार कालाम के पास ही श्रद्धा नहीं है, मेरे पास भी है। आलार कालाम के पास ही समाधि नहीं है, मेरे पास भी है। आलार कालाम के पास ही प्रज्ञा नहीं है, मेरे पास भी है। क्यों न जिस धर्म को आलार कालाम स्वयं जानकर साक्षात्कार कर प्राप्तकर विहरता हूँ कहता है, उस धर्म को साक्षात्कार करने के लिए मैं भी उद्योग करूं। तब मैं बिना देर किए शीघ्र ही उस धर्म को स्वयं जानकर, साक्षात्कार कर, प्राप्तकर विहरने लगा। तब मेरे मन में हुआ कि यह धर्म न निर्वेद के लिए है, न वैराग्य के लिए है, न निरोध के लिए है, न उपशमन के लिए है, न अभिज्ञा के लिए है, न सम्बोधि के लिए है, न निर्वाण के लिए है, यह केवल आकिंचन्यायतन तक उत्पन्न होने के लिए है। तब मैं इस धर्म को अपर्याप्त मानकर उदास हो चल दिया।

इस प्रकार क्या कुशल है? की गवेषणा करता सर्वोत्तम श्रेष्ठ शांतिपद को खोजता जहां उद्दक रामपुत्त था, वहां गया। जाकर उद्दक रामपुत्त से बोला आवुस! इस धर्म वियन में मैं ब्रह्मचर्य पालन करना चाहता हूँ। ऐसा कहने पर उद्दक रामपुत्त मुझसे बोला विहरो आयुष्मान यह वैसा धर्म है जिसमें विज्ञ पुरूष जल्दी अपने आचार्यत्व को स्वयं जानकर, साक्षात्कर, प्राप्तकर विहार करेगा। तब मैंने शीघ्र ही उस धर्म को पूरा कर लिया। तब मेरे मन में हुआ कि उद्दक रामपुत्त जरूर इस धर्म को जानता देखता विहरता होगा। तब मैं जहां उद्दक रामपुत्त था वहां गया, जाकर उद्दक रामपुत्त से पूछा आवुस रामपुत्त तुम इस धर्म को स्वयं जानकर, साक्षात्कर, प्राप्तकर कहाँ तक बतलाते हो? ऐसा कहने पर उद्दक रामपुत्त ने नेवसञ्‍ञानासञ्‍ञायतनं[3] बतलाया। तब मुझे ऐसा हुआ कि उद्दक रामपुत्त के पास ही श्रद्धा नहीं है, मेरे पास भी है। उद्दक रामपुत्त के पास ही वीर्य नहीं है, मेरे पास भी है। उद्दक रामपुत्त के पास ही स्मृति नहीं है, मेरे पास भी है। उद्दक रामपुत्त के पास ही समाधि नहीं है, मेरे पास भी है। उद्दक रामपुत्त के पास ही वीर्य नहीं है, मेरे पास भी है। उद्दक रामपुत्त के पास ही स्मृति नहीं है, मेरे पास भी है। उद्दक रामपुत्त के पास ही समाधि नहीं है, मेरे पास भी है। उद्दक रामपुत्त के पास ही प्रज्ञा नहीं है, मेरे पास भी है। क्यों न जिस धर्म को उद्दक रामपुत्त स्वयं जानकर साक्षात्कर प्राप्तकर विहरता हूँ कहता है, उस धर्म को साक्षात्कार करने के लिए मैं भी उद्योग करूं। तब मैं बिना देर किए शीघ्र ही उस धर्म को स्वयं जानकर, साक्षात्कर, प्राप्तकर विहरने लगा। तब मेरे मन में हुआ कि यह धर्म न निर्वेद के लिए है, न वैराग्य के लिए है, न निरोध के लिए है, न उपशमन के लिए है, न अभिज्ञा के लिए है, न सम्बोधि के लिए है, न निर्वाण के लिए है, यह केवल नैवसंज्ञानासंज्ञायतनतक उत्पन्न होने के लिए है। तब मैं इस धर्म को अपर्याप्त मानकर उदास हो चल दिया। [4]

तब मैं क्या कुशल है? कि गवेषणा करता सर्वोत्तम श्रेष्ठ शांतिपद को खोजते हुए मगध में क्रमशः चारिका करते जहां उरूवेला सेनानी निगम था वहां पहुंचा। वहां मैंने रमणीय भूमिभाग सुन्दर वनखण्ड सुप्रतिष्ठित बहती श्वेत नदी और चारो ओर रमणीय गोचर ग्राम देखा। तब मुझे ऐसा हुआ कि यह भूमिभाग प्रयत्न इच्छुक कुलपुत्र के लिए यह बहुत ठीक स्थान है। यह सोच वहीं बैठ गया और महानतप आरम्भ किया। [5]

तब मैंने श्वासरहित ध्यान कर शरीर को भिन्न-भिन्न प्रकार से कष्ट देता था। देवता भी कहते थे कि श्रमण गौतम मर गया। कोई-कोई देवता यों कहते थे कि श्रमण गौतम नहीं मरा, न मरेगा श्रमण गौतम अर्हत है। अर्हत का तो इस प्रकार का विहार होता ही है। तब मुझे यह हुआ क्यों न मैं आहार को बिलकुल ही छोड़ देना स्वीकार करूं। तब देवताओं ने मेरे पास आकर कहा मार्ष! तुम आहार का बिलकुल छोड़ना स्वीकार करो। हम तुम्हारे रोम-कूपों द्वारा दिव्य ओज डाल देगें। उसी से तुम निर्वाह करोगे। तब मुझे यह हुआ कि मैं अपने को सब तरह से निराहारी जानूंगा और देवता रोम-कूपों द्वारा दिव्य ओज मेरे भीतर डालेंगे, मैं उसी से निर्वाह करूंगा। यह जान मेरा तप झूठा होगा। मैंने उन देवताओं का प्रत्याख्यान किया रहने दो। [6] तब मुझे यह हुआ कि क्यों न मैं थोड़ा-थोड़ा आहार ग्रहण करूं। जैसे पसर भर मूँग का जूस या कुलथी का जूस या मटर का जूस या अरहर का जूस। तब मैं थोड़ा-थोड़ा पसर-पसर भर मूंग का, कुल्थी का, मटर का, अरहर का जूस ग्रहण करने लगा। इस प्रकार आहार कम करने से मेरा शरीर दुर्वलता की चरम सीमा पर पहुंच गया। इस अल्प आहार से उंट के पैर जैसा मेरा कूल्हा हो गया। सूओं की पाती जैसी उंची-नीची मेरे पीठ के कांटे हो गये। पुरानी शाला की कड़ियां जैसी अलग-विलग मेरी पसुलियां हो गयी। जैसे गहरे कुए में पानी का तारा बहुत दूर दिखायी देता है वैसी मेरी आंखे हो गयीं। जैसे कच्ची तोड़ी लौकी हवा-धूप से चिचुक जाती है, मुर्झा जाती है, ऐसे ही मेरे सिर की खाल चिचुक गई, मुर्झा गयी। यदि मैं पेट की खाल को मसलता तो पीठ के कांटे को पकड़ लेता। पीठ के कांटे को मसलता तो पेट की खाल को पकड़ लेता। इस प्रकार अल्पाहार से मेरी पीठ के कांटे और पेट की खाल बिलकुल सट गई थी। यदि मैं पाखाना या मूत्र करता तो वहीं भहराकर गिर पड़ता था। जब मैं काया को सहराते हुए गात्र को मसलता था तो हाथ से गात्र मसलते वक्त काया से सड़ी जड़ वाले रोम झड़ जाते थे। मनुष्य भी मुझे देखकर कहते थे कि श्रमण गौतम काला है। कोई-कोई मनुष्य कहते थे कि श्रमण गौतम काला नहीं श्याम है। कोई-कोई मनुष्य यों कहते की श्रमण गौतम काला नहीं है, न श्याम है, मंगुर वर्ण का है। इस प्रकार मेरा परिशुद्ध, परिवोदात छविवर्ण नष्ट हो गया। तब मैं इस घोर दुक्ख, तीव्र और कटु वेदना से भी उत्तर मनुष्य धर्म को न पा सका। विचार हुआ कि बोधि के लिए क्या कोई दूसरा मार्ग है?[7]

तब मैं इस कठिन छः वर्षों की काय-दंडन दुष्करचर्या को छोड़ मुझे यों हुआ किअभिजानामि खो पहानं पितु सक्कस्स कम्मन्ते सीताय जम्बुच्छायाय निसिन्नो विविच्चेव कामेहि विविच्च अकुसलेहि धम्मेहि सवितक्कं सविचारं विवेकजं पीतिसुखं पठमं झानं उपसम्पज्ज विहरथ, सिया नु खो मग्गो बोधायाति।[8] अर्थात् मैंने पिता शुद्धोदन शाक्य के खेत पर जामुन की ठण्डी छाया के नीचे बैठ, काम और अकुशल धर्मों को हटाकर प्रथम ध्यान को प्राप्त हो विहार किया था। शायद वह मार्ग बोधि का हो। तब मैं बोधिवृक्ष के तले दृढ़तापूर्वक पालथी मार कर बैठ गया और आनापान की साधना शुरू कर दी। शुद्ध सांस के प्रति जागरूक रहते-रहते चित्त एकाग्र होने लगा। रात्रि के प्रथम प्रहर में ही असंख्य पूर्वजन्मों की स्मृतियां जाग उठीं और देखा कि न जाने कितनी बार विपश्यना साधना की है, परंतु सम्यक संबुद्ध बनने का संकल्प होने के कारण, सारी पारमिताओं की परिपूर्णता न होने के कारण, इंद्रियातीत अवस्था का साक्षात्कार न हो सका। अब समय पका है। सारी पारमिताएं पूर्णता को प्राप्त हो चुकी हैं। अंतर में जागी हुई पुरानी विपश्यना साधना के सहारे काम करते-करते रात्रि के अंतिम प्रहर में सारे अनुशय क्लेशों और सुषुप्त-आस्रवों का क्षय हुआ। आलय-चित्त निरालय हुआ, विकार-विमुक्त हुआ। सम्यक संबोधि जागी। आस्रव-विहीन वीतराग योगी सम्यक संबुद्ध बन गया।

 भगवान बुद्ध ने सांसारिक दुःखों के निवारण हेतु जो अंतिम साधना की, जिससे उन्हें बुद्धत्व प्राप्त हुआ, जिससे निर्वाण की प्राप्ति हुई, उसी साधना का नाम विपश्यना है। विपश्यना उस विशिष्ट ज्ञान और दर्शन को कहते हैं, जिनके द्वारा धर्मों की अनित्यता, दुःखता और अनात्मता प्रकट होति है।[9] विपश्यना साधना प्राचीन संस्कृति की एक विशिष्ट देन है। शील, समाधि और प्रज्ञा इस साधना के आवश्यक अंग हैं। प्रायोगिक ज्ञान और उस ज्ञान के आधार पर जीवन-दर्शन और दर्शन के आधार पर समझपूर्वक चरित्र ये तीनों इस साधना में व्याप्त हैं। तन और मन के स्थूल और सूक्ष्म अनुभवों से परिचय और उनका उपचार विपश्यना साधना से सम्भव है। यह साधना प्रयोग प्रधान के साथ-साथ आचरण प्रधान भी है। विपश्यना प्रज्ञा की वह अंतिम कड़ी है जिसके द्वारा अंतर्मुखी होकर अनित्य, दुःख और अनात्म का अनुभव करते हुए परम सत्य यानी निर्वाणिक अवस्था का साक्षात्कार होता है। विपश्यना साधना यही है कि दुःख के अस्तित्व को स्वीकार करो और प्रज्ञापूर्वक सामना करते हुए उसका गहरा निरोध कर लो। विपश्यना शब्द का अर्थ है विशेष रूप से देखना यानी साक्षीभाव से अपने भीतर की सच्चाई को देखना है। यह विद्या चित्त और शरीर का शोधन करती है। यह आत्मनिरीक्षण द्वारा आत्मशोधन की विधि है। इसका आरम्भ अपने स्वाभाविक श्वास के निरीक्षण से होता है जिससे चित्त एकाग्र होता है। इससे प्राप्त कुशाग्र जागरूकता द्वारा अपने शरीर और मन के परिवर्तनशील स्वभाव का दर्शन होता है। इस विद्या द्वारा अनित्य, दुःख और अनात्म के विश्वजनीन सत्य का अनुभव होता है। भगवान बुद्ध के शब्दों में इसे दुःख निवारण की साधना कहते हैं। दुःख का साक्षत्कार, दुःख के कारण का साक्षात्कार, दुःख के निवारण का साक्षात्कार और दुःख निवारण विधि का साक्षात्कार ये सारी बातें विपश्यना साधना में निहित हैं। इस साधना में बार-बार इस बात का अनुभव होता है कि यह शरीर संवेदनाओं का बना हुआ है। ये संवेदनाएं क्षण-क्षण में अनगिनत बार बनती और नष्ट होती रहती हैं कोई संवेदना टिकने वाली नहीं होती है। दुःख की संवेदना आये तो उससे द्वेष न किया जाय और यदि सुख की संवेदना आये तो उससे राग या चिपकाव न किया जाय, क्योंकि दोनों ही बदलने वाली हैं। हर संवेदना को तटस्थ-रूप में देखने का अभ्यास किया जाय और चित्त को समता में स्थापित रखा जाय, यही इस साधना का केंद्र बिंदु है।

इस प्रकार विपश्यना साधना करते हुए उस समय भगवान बोधिवृक्ष के नीचे विमुक्त्ति सुख का आनन्द लेते हुए सप्ताह भर एक आसन पर बैठे रहे। तब भगवान ने रात के प्रथम, द्वितीय और तृतीय तीनो यामों में प्रतीत्यसमुत्पाद का अनुलोम और प्रतिलोम मनन किया। कि अवि़द्या के कारण संस्कार होता है, संस्कार के कारण विज्ञान होता है, विज्ञान के कारण नाम-रूप, नाम रूप के कारण छ आयतन, छ आयतनों के कारण स्पर्श, स्पर्श के कारण वेदना, वेदना के कारण तृष्णा, तृष्णा के कारण उपादान, उपादान के कारण भव, भव के कारण जाति, जाति के कारण जरा, मरण, शोक, रोना पीटना, दुःख, चित्त विकार, और चित्त खेद उत्पन्न होते हैं। इसी प्रकार अविद्या के विल्कुल विराग से निरोध होने से संस्कार का निरोध होता है, संस्कार निरोध से विज्ञान का निरोध होता है, विज्ञान निरोध से नाम-रूप का निरोध होता है, नाम-रूप के निरोध से छ आयतनों का निरोध होता है, छ आयतनों के निरोध से स्पर्श का निरोध होता है, स्पर्श के निरोध से वेदना का निरोध होता है, वेदना के निरोध से तृष्णा का निरोध होता है, तृष्णा के निरोध से उपादान का निरोध होता है, उपादान के निरोध से भव का निरोध होता है, भव के निरोध से जाति का निरोध होता है, जाति के निरोध से जरा, मरण, शोक,रोना-पीटना, दुःख, चित्त-विकार और चित्त-खेद का निरोध हो जाता है। इस प्रकार केवल दुःख स्कन्ध का निरोध होता है।[10] मज्झिमनिकाय भयभेरव सुत्त में ब्राह्मण जानुस्सोणि के पूछने पर भगवान अपनी संबोधि प्राप्ति के बारे में कहते हैं कि- ‘ब्राह्मण! मैंने न दबने वाला वीर्य (उद्योग, ध्यान के लिए परिश्रम) आरम्भ किया। उस समय मेरी स्मृति जागृत थी, मेरी काया प्रशान्त और असारद्ध थी। समाहित किया हुआ चित्त एकाग्र था। इस प्रकार हे ब्राह्मण! मैं कामों से रहित, अकुशल धर्मों से रहित, विवके से उत्पन्न सवितर्क सविचार, प्रीतीसुख वाले प्रथम ध्यान को प्राप्त हो विहरने लगा। फिर वितर्क और विचार के शान्त होने पर भीतरी शान्त और चित्त की एकाग्रता वाले अ-वितर्क अ-विचार समाधि और प्रीतीसुख वाले द्वितीय ध्यान को प्राप्त हो विहरने लगा। फिर प्रीति से विरक्त हो, उपेक्षक बन स्मृति-संप्रजन्य से युक्त हो शरीर से सुख अनुभवकरते, जिसे कि आर्य उपेक्षक, स्मृतिमान् सुख विहारी कहते हैं, उस तृतीय ध्यान को प्राप्त हो विहरने लगा। फिर सुख और दुक्ख के परित्याग से सौमनस्य और दौर्मनस्य के अनुभव पहले अन्त हो जाने से, सुख-दुक्ख-रहित जिसमें उपेक्षा से स्मृति की शुद्धि हो जाती है, उस चतुर्थ ध्यान को प्राप्त हो विहरने लगा। सो इस प्रकार चित्त के एकाग्र, परिशुद्ध, पर्यवदात, अंगण रहित, उपक्लेश रहित, मृदुभूत, कायोपयोगी स्थिर, अचलता प्राप्त और समाधियुक्त हो जाने पर पूर्व जन्मों की स्मृति ज्ञान के लिए मैंने चित्त को झुकाया। फिर अनके पूर्व-निवासों को स्मरण करने लगा, जैसे कि एक जन्म को भी, दो जन्म को भी, तीन जन्म को भी, चार जन्म को भी, पांच जन्म को भी, दस जन्म को भी, बीस जन्म को भी, चालीस जन्म को भी, पचास जन्म को भी, सौ जन्म को भी, हजार जन्म को भी, सौ हजार जन्म को भी, अनेक संवर्त कल्पों को भी, अनेक विवर्त कल्पों को भी, अनेक संवर्त-विवर्त-कल्पों को भी स्मरण करने लगा। तब मैं अमुक स्थान पर इस नाम वाला, इस गोत्र वाला, इस वर्ण वाला, इस अहार वाला अमुख प्रकार के सुख-दुक्ख को अनुभव करता इतनी आयु तक रहा। वहां से च्युत हो अमुक स्थान में उत्पन्न हुआ। वहां भी इस नाम वाला, इस गोत्र वाला, इस वर्ण वाला, इस अहार वाला अमुक प्रकार के दुक्ख-सुख को अनुभव करता इतनी आयु तक रहा। फिर वहां से च्युत हो अब यहां उत्पन्न हुआ। इस प्रकार आकार और उद्देश्य के सहित अनेक प्रकार के पूर्व-निवासों को स्मरण करने लगा। तब ब्राह्मण इस प्रकार प्रमाद रहित, तत्पर तथा आत्मसंयमयुक्त विहरते हुए, रात के पहले याम में मुझे पहली विद्या प्राप्त हुई, अविद्या नष्ट हुई, विद्या उत्पन्न हुई, तम नष्ट हुआ, आलोक उत्पन्न हुआ। सो इस प्रकार चित्त के समाहित, परिशुद्ध, पर्यवदात, अंगण रहित, उपक्लेश रहित, मृदुभूत, कायोपयोगी, स्थिर, अचलता प्राप्त और समाधियुक्त हो जाने पर प्राणियों की च्युति और उत्पत्ति के ज्ञान के लिए चित्त को झुकाया। सो मैं अ-मानुष, विशुद्ध, दिव्य चक्षु से अच्छे-बुरे, सुर्वण-दुर्वण, सुगति वाले, दुर्गति वाले प्राणियों को मरते उत्पन्न होते देखने लगा, कर्म के अनुसार गति को प्राप्त होते प्राणियों को पहचानने लगा। कि यह प्राणधारी लोग कायिक दुराचार से युक्त, वाचिक दुराचार से युक्त, मानसिक दुराचार से युक्त, आर्यों के निन्दक मिथ्या मत वाले, मिथ्या-दृष्टि से कर्म करने वाले, काया को छोड़ने पर मरने के बाद अपाय, दुर्गति, विनिपात नरक योनि में उत्पन्न हुए हैं। और जो प्राणधारी लोग कायिक, वाचिक, मानसिक सदाचार से युक्त, आर्यों के अ-निन्दक सम्यक् दृष्टि वाले, सम्यक्-दृष्टि-सम्बन्धी कर्म करने वाले हैं। ये काया छोड़ने पर मरने के बाद सुगति, स्वर्ग लोक को प्राप्त हुए हैं। अतः ब्राह्मण इस प्रकार प्रमादरहित, तत्पर तथा आत्मसंयुक्त विहरते हुए, रात के मध्यम याम में यह मुझे दूसरी विद्या प्राप्त हुई, अविद्या नष्ट हुई, विद्या उत्पन्न हुई, तम नष्ट हुआ, आलोक उत्पन्न हुआ। सो इस प्रकार चित्त के एकाग्र, परिशुद्ध, पर्यवदात, अंगण रहित, उपक्लेश रहित, मृदुभूत, कायोपयोगी, स्थिर, अचलता प्राप्त और समाधियुक्त हो जाने पर आस्रवों के क्षय के ज्ञान के लिए चित्त को झुकाया। फिर मैंने यह दुक्ख है इसे यथार्थ् से जान लिया, यह दुक्ख-समुदय है इसे यथार्थ् से जान लिया, यह दुक्ख-निरोध है इसे यथार्थ् से जान लिया, यह दुक्ख-निरोधगामिनी प्रतिपद् है इसे यथार्थ् से जान लिया। यह आस्रव है इसे यथार्थ्से जान लिया, यह आस्रव का समुदय है इसे यथार्थ् जान लिया, यह आस्रव निरोध है इसे यथार्थ् जान लिया, यह आस्रवनिरोधगामिनी प्रतिपद् है इसे यथार्थ् जान लिया। इस प्रकार देखते इस प्रकार जानते मेरा चित्त काम आस्रव से मुक्त हो गया, भव आस्रव से मुक्त हो गया, अविद्या आस्रव से मुक्त हो गया। छूट जाने पर छूट गया ऐसा ज्ञान हुआ। जन्म खत्म हो गया, ब्रह्मचर्य पूरा हो गया, जो करना था सो कर लिया, अब यहां करने के लिए कुछ नहीं है इसे जान लिया। इस प्रकार ब्राह्मण रात के अन्तिम याम में यह मुझे तीसरी विद्या प्राप्त हुई, अविद्या नष्ट हुई, विद्या उत्पन्न हुई, तम नष्ट हुआ, अलोक उत्पन्न हुआ।[11] इस प्रकार मैं सम्यक सम्बुद्ध हुआ।

इस प्रकार सम्यक-सम्बुद्ध हो भगवान ने बोधिवृक्ष के नीचे सप्ताह भर एक आसन से मोक्ष का आनंद लेते हुए बैठे रहे। तब भगवान आठवें दिन यानी दूसरे सप्ताह में समाधि से उठकर वज्र आसन से थोडा पूर्व-उत्तर दिशा में खडे हो वज्र आसन और बोधिवृक्ष को बिना पलक गिराये एक टक देखते रहे, यह स्थान अनिमेष चैत्य कहलाया।[12] फिर वज्र आसन और अनिमेष चैत्य के बीच पूर्व से पश्चिम लम्बे रत्न-चंक्रम पर टहलते हुए तीसरा सप्ताह विताया। यह स्थान रत्न चैत्य कहलाया।[13] रतन चैत्य के पश्चिम दिशा में देवताओं ने रतनघर बनाया, इस रतनघर में बैठकर अभिधम्मपिटक पर विचार करते हुए सप्ताह भर बिताया, इसलिए यह घर रतन चैत्य कहलाया।[14] इस प्रकार भगवान बुद्ध बोधिवृक्ष के आस-पास चार सप्ताह बिताकर पाँचवा सप्ताह अजपाल निग्रोध वृक्ष के नीचे एक आसन पर बैठ कर विमुक्ति सुख का आनंद लेते हुए विताया। फिर भगवान अजपाल निग्रोध वृक्ष के नीचे से उठकर मुचलिन्द वृक्ष के नीचे छठा सप्ताह विमुक्ति सुख का आनंद लेते हुए बैठे रहे, तव मुचलिन्द नागराज आकर अपने शरीर से भगवान के शरीर को सात बार लपेट कर शिर के उपर बड़ा सा फन करके शरीर की सुरक्षा किया।[15] तब भगवान सप्ताह बीतने पर समाधि से उठकर मुचलिन्द वृक्षके नीचे से राजायतन वृक्ष के नीचे विमुक्त्ति सुख का आनंद लेते हुए सप्ताह भर एक आसन से बैठे रहे। उस समय तपस्सु और भल्लिक दो व्यापारी उत्कल देश से उस स्थान पर पहुँचे जहाँ भगवान बैठे हुए थे। तब उनकी जात विरादरी के देवताओं ने तपस्सु और भल्लिक व्यापारियों से कहा हे मित्र बुद्धपद को प्राप्त हो यह भगवान राजायतन के नीचे विहार कर रहें हैं। जाओ उन भगवान को मट्ठे और मधुपिण्ड से सम्मानित करो, यह तुम्हारे लिए चिरकाल तक हित और सुख देने वाला होगा। उस समय भगवान ने सोचा कि तथागत भिक्षा को हाथ में नहीं ग्रहण किया करते, मैं मट्ठा और मधुपिण्ड किस पात्र में ग्रहण करूं। तब चारों महाराज भगवान के मन की बात जानकर चारो दिशाओं से चार पत्थर के भिक्षापात्र भगवान के पास ले गये, कि भगवान इसमें मट्ठा और मधुपिण्ड ग्रहण कीजिए। भगवान ने उस अभिनव शिलामय पात्र में मट्ठा और मधुपिण्ड ग्रहण कर भोजन किया। उस समय तपस्सु और भल्लिक व्यापारियों ने भगवान से कहा-भन्ते! हम दोनो भगवान तथा धर्म की शरण जाते हैं। आज से हम दोनो को अंजलिबद्ध शरणागत उपासक जानें। इस प्रकार ये दोनों दो वचनों से प्रथम उपासक हुए।[16]

सात सप्ताह विमुक्त्ति सुख में व्यतीत करने के बाद भगवान अजपाल निग्रोध के नीचे विहार कर रहे थे। उस समय ध्यान करते हुए भगवान के चित्त में वितर्क पैदा हुआ कि वास्तव में मैंने जो धर्म प्राप्त किया है वह गम्भीर, दुदर्शन, दुर-ज्ञेय, शांत, उत्तम, तर्क से अप्राप्य, निपुण और पण्डितों द्वारा जानने योग्य है। यह प्रजा आसक्ति में रमण करने वाली, आसक्ति में रत, आसक्ति में प्रसन्न है। काम में रमण करने वाली इस प्रजा के लिए, यह जो कार्य कारण रूपी प्रतीत्य समुत्पाद है, और सभी संस्कारों का शमन, सभी आसक्तियों का परित्याग, तृष्णा का क्षय, विराग, निरोध और निर्वाण रूपी धर्म है। यदि मैं इसका उपदेश करूं और ये न समझ पावें तो मेरे लिए दुःख और हैरानी ही होगी। भगवान के द्वारा ऐसा विचार करने पर उनका चित्त धर्म प्रचार की ओर न झुककर अल्प उत्सुकता की ओर झुक गया। तब सहम्पति ब्रह्मा ने भगवान के चित्त की बात को जानकर धर्म प्रचार के लिए तीन बार निवेदन किया कि हे भगवान धर्म का उपदेश करें। हे सुगत धर्म का उपदेश करें। हे शोक-रहित, शोक-निमग्न जन्मजरा से पीड़ित जनता की ओर देखो। तब भगवान ने ब्रह्मा के अभिप्राय को जानकर और प्राणियों पर दया करके बुद्ध नेत्र से लोक का अवलोकन किया। बुद्ध चक्षु से लोक को देखते हुए भगवान ने जीवों को देखा उनमें कितने ही अल्पमल, तीक्ष्णबुद्धि, सुन्दर स्वभाव, समझाने में सुगम प्राणियों को देखा। देखकर सहम्पति ब्रह्मा से कहा उनके लिए अमृत का द्वार बंद हो गया जो कान होने पर भी श्रद्धा को छोड़ देते हैं। हे ब्रह्मा पीड़ा का ख्यालकर मैं मनुष्यों को निपुण, उत्तम धर्म को नहीं कहता था। तब ब्रह्मा सहम्पति यह जान कि भगवान ने धर्मउपदेश के लिए मेरी बात मान ली भगवान को अभिवादन कर प्रदक्षिणाकर वहीं अन्तर्धान हो गया।[17]


[1]मज्झिमनिकाय, मज्झिमपण्णासपाळि, बोधिराजकुमारसुत्तं, अनु. सं. 327, विपश्यना विशोधन विन्यास, धम्मगिरी इगतपुरी।

[2]मज्झिमनिकाय, मज्झिमपण्णासपाळि, बोधिराजकुमारसुत्तं, अनु. सं. 327, विपश्यना विशोधन विन्यास, धम्मगिरी इगतपुरी।

[3]मज्झिमनिकाय, मज्झिमपण्णासपाळि, बोधिराजकुमारसुत्तं, अनु. सं. 328, विपश्यना विशोधन विन्यास, धम्मगिरी इगतपुरी।

[4]मज्झिम निकाय, बोधिराजकुमार सुत्त, अनु, राहुल सांकृत्यायन, सम्यक प्रकाशन, नई दिल्ली-63, पृ सं. 382।

[5]मज्झिम निकाय, बोधिराजकुमार सुत्त, अनु, राहुल सांकृत्यायन, सम्यक प्रकाशन, नई दिल्ली-63, पृ सं. 384।

[6]मज्झिम निकाय, बोधिराजकुमार सुत्त, अनु, राहुल सांकृत्यायन, सम्यक प्रकाशन, नई दिल्ली-63, पृ सं. 385।

[7]मज्झिम निकाय, बोधिराजकुमार सुत्त, अनु, राहुल सांकृत्यायन, सम्यक प्रकाशन, नई दिल्ली-63, पृ सं. 385।

[8]मज्झिमनिकाय, मज्झिमपण्णासपाळि, राजवग्गो, बोधिराजकुमार सुत्तं, अनु. सं. 327, विपश्यना विशोधन विन्यास, धम्मगिरी इगतपुरी।

[9]विपश्यना लोकमत, भाग 1, विपश्यना विशोधन विन्यास, धम्मगिरी इगतपुरी।

[10]विनयपिटक, महावग्गपाळि,  बोधिकथा, अनु. सं. 1, विपश्यना विशोधन विन्यास, धम्मगिरी, इगतपुरी।

[11]मज्झिम निकाय, भयभेरव-सुत्त, अनुवादक-महापंडित राहुल सांकृत्यायन, पृ.सं. 52, सम्यक प्रकाशन नई दिल्ली-63, 2020,

[12]बोधिरूक्खंच अनिमिसेहि अक्खीहि आलोकयमानो सत्ताहं वीतिनामेसि, तं ठानं अनिमिसचेतियं नाम जातं। महावग्ग-अट्ठकथा, विपश्यना विशोधन विन्यास, पृ. स. 4, अनु.सं. 4।

[13]तं ठानं रतनचङ्कमचेतियं नाम जातं। महावग्ग-अट्ठकथा, विपश्यना विशोधन विन्यास, पृ. स. 4, अनु. सं. 4।

[14]तं ठानं रतनघरचेतियं नाम जातं। महावग्ग-अट्ठकथा, विपश्यना विशोधन विन्यास, पृ. स. 4, अनु. सं. 4

[15]अथ खो मुचलिन्दो नागराजा सकभवना निक्खमित्वा भगवतो कायं सत्तक्खत्तुं भोगेहि परिक्खिपित्वा उपरिमुद्धानि महन्तं फणं करित्वा अट्ठासि।-विनयपिटक महावग्गपाळि, विपश्यना विशोधन विन्यास, धम्मगिरी, इगतपुरी, महाराष्ट्र, पृ.सं. 4,अनु. 5।

[16]विनयपिटक, महावग्ग, राजायतन कथा, अनु. राहुल सांस्कृत्यायन।

[17]विनयपिटक, महावग्गपालि,  महास्कन्धक, ब्रह्मयाचनाकथा, अनु. सं. 7,8,9, पृ.स. 5, विपश्यना विशोधन विन्यास, धम्मगिरी, इगतपुरी।

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विपश्यना साधना का उद्भव विकास एवं आचार्य परम्परा

बोधिसत्व सिद्धार्थ गौतम को छः बर्षों की कठिन तपश्यचर्या के उपरांत वैशाख पूर्णिमा की रात को बोधिवृक्ष के नीचे साधना में लीन जन्म-मृत्यु से परे लोकातीत अवस्था को खोजते-खोजते अपने ही शरीर में मन से जुड़ी हुई शारीरिक संवेदनाओं की अनुभूति होने लगी। इन संवेदनाओं को समता भाव से देखते-देखते चित्त निर्मल हुआ, विकार विहीन हुआ और आगे बढ़ते हुए इन्द्रियातीत अवस्था का दर्शन हुआ जिसे भगवान बुद्ध ने सम्यक संबोधि कहा। जिस साधना-विधि के द्वारा अर्थात् ‘देखते रहने’ के फलस्वरूप सिद्धार्थ गौतम को बुद्धत्व की प्राप्ति हुई थी, उस साधना विधि को भगवान बुद्ध ने ‘विपश्यना’ शब्द से सम्बोधित किया। अतः इस प्रकार से विपश्यना साधना का उद्भव हुआ। इस प्रकार हम कह सकते है कि बुद्धत्व प्राप्ति और विपश्यना का उद्भव साथ-साथ हुआ।

विपश्यना के द्वारा वे बुद्ध बने तो सारा मन करूणा से भर गया। लोक कल्याण की भावना से ओत-प्रोत हो गये। विपश्यना, संबोधि प्राप्त करने की एक नैसर्गिक विधि है। इसलिए यह धर्म-गंगा बिना बहे नहीं रूक सकती थी। मानव कल्याण हेतु इसका प्रसार होना ही था। आषाढ़ मास की पूर्णिमा की सुहावनी संध्या का समय था। भगवान के पूर्व पांचो साथी विराजमान थे। भगवान ने धर्म का प्रकाशन किया। विपश्यना साधना का अभ्यास काराया। मध्यम मार्ग का उपदेश किया। शील, समाधि, प्रज्ञा इन आठ अंगों वाली विपश्यना-मार्ग को प्रकट किया। अर्थात् पहली बार धमचक्रप्रवर्तन हुआ। विपश्यना का अभ्यास पंचवर्गीय भिक्षुओं ने किया, उनके चित्त निर्मल हुए, वे जन्म-मरण के भवसंसरण से मुक्त हुए। विपश्यना फलवती हुई, पांचो भिक्षु अरहंत हुए।

फिर तो विपश्यना की धर्म गंगा प्रवाहित हो गयी। भगवान इसिपत्तन मृगदाववन में ध्यानरत थे। सुजाता का पुत्र यश यह कहते हुए उपद्दुतं वत भो, उपस्सट्ठं वत भोति। [1] अर्थात् हाय दुःख, हाय दुःख, हाय संताप, हाय संताप कहता भगवान के पास आ पहुंचा। भगवान को करूणा जागी, उसे विपश्यना-धर्म सिखाया, उसका दुःख दूर हुआ, संताप दूर हुआ, चित्त निर्मल हुआ, वह स्रोतापन्न हुआ। यश को खोजते हुए उसका पिता भी आ पहुंचा, भगवान ने उपदेश दिया। यश का पिता भी उपदेश सुनते-सुनते, विपश्यना करते-करते स्रोतापन्न अवस्था को प्राप्त हुआ, और यश अरहंत हुआ। भगवान ने यश के चार गृही मित्र और उनके अन्य पचास मित्रों को दुःख विमोचनी विपश्यना विद्या सिखायी। भगवान को लेकर लोक में अरहंतों की संख्या इकसठ हुई। भगवान ने उन सभी इकसठ भिक्षुओं को विपश्यना विद्या के माध्यम से विमुक्ति सुख प्रदान करने वाले धर्म के प्रचार का आदेश दिया।

पंचवर्गीय भिक्षुओं से लेकर अन्तिम भिक्षु सुभद्र तक भगवान ने 45 वर्षों तक चारिका करते हुए विपश्यना विद्या सिखायी लाखों की संख्या में लोग मुक्त हुए, विपश्यना विद्या फलवती हुई। महापरिनिर्वाण के तीन महीने बाद राजगृह में भिक्षु महाकाश्यप की अध्यक्षता में प्रथम संगायन हुआ। विपश्यना विद्या के साथ-साथ समूची बुद्धवाणी का पाठ हुआ, 500 अरहंत भिक्षुओं ने इसका अनुमोदन किया, विपश्यना विद्या सफल हुई। [2] महापरिनिर्वाण के 100 वर्षों के बाद विपश्यना और बुद्धवाणी को शुद्ध रखने के लिए राजा कालाशोक के संरक्षण में द्वितीय संगायन हुआ, इसमें 700 भिक्षुओं ने भाग लिया। [3] कलिंग युद्ध के कारण सम्राट अशोक को बहुत क्षोभ हुआ। वह भगवान की शिक्षांओं की ओर मुड़ा। वह विपश्यना साधना का अभ्यास करने के लिए राजस्थान के वैराठ पहुँचा। आचार्य उपगुप्त (मोग्गलिपुत्ततिस्स) से विपश्यना साधना सीखकर स्रोतापन्न हुआ। मोग्गलिपुत्ततिस्स की अध्यक्षता में सम्राट अशोक के संरक्षण में तीसरी धम्मसंगीति संपन्न हुई। धर्म को भिन्न-भिन्न देशों में भेजा गया। बुद्धवाणी के साथ-साथ विपश्यना भी भारत के बाहर अन्य देशों में प्रवाहित हुई। सोण और उत्तर दक्षिणी म्यांमार और पश्चिमी थाइलैंड की सुवण्णभूमि गये। उनके साथ विपश्यना भी ब्रह्मदेश पहुंची, जहां 500 वर्षों तक बुद्धवचन और विपश्यना विद्या अपने शुद्ध रूप में कायम रही। [4] 29 ई.पू. श्रीलंका में भदंत महारक्षित की अध्यक्षता में राजा वट्टगामिनी के संरक्षण में 500 तिपिटकधर भिक्षुओं द्वारा चौथा संगायन संपन्न हुआ। मूल बुद्धवाणी को ताड़पत्रों पर लिखा गया। [5]

बर्मी नरेश मिंडोमिन के संरक्षण में भदंत जागराभिवंश (फयार्गी सयाडो ), भदंत महाथेर नरिंदाभिधज (सिबानी सयाडो) और महाथेर सुमंगल सामी (मायिनवोन सयाडो) की अध्यक्षता में पांचवा संगायन आयोजित हुआ। इस संगायन में 2400 विशिष्ट विद्वान भिक्षुओं ने भाग लिया। सारी बुद्धवाणी संगमरमर की शिला-पट्टियों पर खुदवायी गयी ताकि वह चिरस्थायी रहे। बुद्धवाणी और विपश्यना साधना में पारंगत प्रकांड पंडित भिक्षु लैडी सयाडो सम्मिलित हुए। 17 मई 1954 को रंगून में बर्मा के प्रधानमंत्री ऊ नू की संरक्षणता में एवं अभिधज महारट्ठगुरू भदंत रेवत की अध्यक्षता में छठां संगायन आयोजित हुआ। इस संगायन में बुद्धानुयाई देशों और म्यंमा से 2500 विद्वान भिक्षुओं ने भाग लिया। इस संगीति का समापन सन 1956 की वैशाख पूर्णिमा के दिन भगवान बुद्ध के 2500 वर्ष पूरे होने पर हुआ।[6]

विपश्यना आचार्य अरहंत भिक्षु लेडी सयाडो- भिक्षु लेडी सयाडो पालि वांग्मय के प्रकांड विद्वान होने के साथ-साथ विपश्यना के महान आचार्य भी थे। आधुनिक युग में विपश्यना को लेकर यानी बुद्ध की शिक्षा को लेकर बहुत दूरदर्शी थे। इन्होंने भगवान बुद्ध द्वारा सिखायी गयी विपश्यना साधना की पारंपरिक प्रथा को पुनर्जीवित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। जो विपश्यना विद्या केवल भिक्षुओं तक सिमित थी उसे गृहस्थों के लिए सुलभ बना दिया। और अपने उपासक सयातै जी को जो विपश्यना में पारंगत थे, आचार्य के पद पर स्थापित किया।[7]

विपश्यना आचार्य सयातै जी– सयातै जी का जन्म एक साधारण किसान परिवार में हुआ था। बुद्ध धर्म में इनकी बड़ी रूचि होने के कारण आनापान साधना (विपश्यना का प्रारंभिक चरण) का ये निरन्तर अभ्यास करते थे। भिक्षु भदंत लेडी सयाडो से विपश्यना सीखकर सतत अभ्यास कर विपश्यना में पारंगत हुए। भगवान बुद्ध द्वारा स्थापित गृहस्थ आचार्य परम्परा को कायम रखने के लिए भिक्षु लेडी सयाडो ने इनको विपश्यना का आचार्य घोषित किया। इन्होंने गृहस्थ आचार्य के रूप में एक आदर्श भूमिका निभाई, हजार से अधिक लोगों को विपश्यना सिखायी, जिनसे केवल गुहस्थ ही नहीं बल्कि अनेक भिक्षु भी लाभान्वित हुए। इन्होंने सयाजी ऊ बा खिन को विपश्यना में पारंगत किया एवं आचार्य के पद पर नियुक्त किया। [8]

महान विपश्यना आचार्य सयाजी ऊ बा खिनआचार्य सया तै जी के पश्चात पूज्य ऊ बा खिन विपश्यना के गृहस्थ आचार्य हुए। इन्होंने केवल बर्मा के बुद्धानुयायी गृहस्थों को ही नहीं बल्कि अनेक विदेशी गृहस्थों को भी विपश्यना सिखायी। जिनमें बर्मा के रहने वाले प्रवासी भारतीय भी थे और बाहर से आने वाले अन्य गृहस्थ भी। उनकी यह प्रवल मान्यता थी कि द्वितीय बुद्धशासन का समय आरंभ होगा तब बर्मा से बुद्धवाणी और विपश्यना साधना पहले भारत जायेगी और फिर वहां से सारे विश्व में फैलेगी। सयाजी ऊ बा खिन ने अपने प्रमुख शिष्य श्री सत्यनारायण गोयन्का जी को आचार्य बनाया और उनके माध्यम से बुद्धवाणी तथा विपश्यना को भारत भेजा।[9]

विश्वविश्रुत विपश्यना आचार्य सत्यनारायण गोयन्का जी- महान विपश्यना आचार्य सयाजी ऊ बा खिन के रूप में उनके प्रतिनिधि विपश्यना आचार्य पूज्य गुरूदेव सत्यनारायण जी गोयन्का 22 जून 1969 में बर्मा से भारत आये। आचार्य श्री सत्यनारायण गोयन्का का जन्म म्यंमा के मांडले शहर में हुआ था। ……….वे गृहस्थ थे और वहां के प्रसिद्ध व्यापारी थे। 1955 में इन्होंने सयाजी ऊ बा खिन से विपश्यना का प्रथम शिविर किया और 14 वर्षों तक विधिवत विपश्यना का प्रशिक्षण प्राप्त किया। ये भगवान बुद्ध की विद्या परियत्ति और पटिपत्ति दोनों में पारंगत हुए। 1969 में सयाजी ऊ बा खिन ने इन्हें विधिवत विपश्यना आचार्य के पद पर प्रतिष्ठित किया और भारत भेजा। आचार्य सत्यनारायण जी गोयन्का विपश्यना और बुद्धवाणी भारत लेकर आये। उनके द्वारा विपश्यना विद्या भारत में प्रतिस्थापित हुई और पुरे विश्व में इसका प्रसार-प्रचार किया। उनके द्वारा दुनिया भर में 200 से ज्यादा विपश्यना ध्यान केन्द्र स्थापित किए गये। इन केन्द्रों में लगभग 60 भाषाओं में विपश्यना सिखायी जाती है। इनके द्वारा भारत की इगतपुरी नगरी में विपश्यना विशोधन विन्यास की स्थापना हुई। इस संस्था ने सम्पूर्ण पालि त्रिपिटक के 140 ग्रंथो को नागरी लिपि में प्रकाशित कर निःशुल्क बांटा और इन्हें सीडी-रोम में निवेशित कर विश्व की चौदह लिपियों में इंटरनेट पर भी प्रकाशित किया।[10]

[1]विनयपिटक, महावग्गपाळि, महाखन्धको, पब्बज्जाकथा, अनु. सं. 25, विपश्यना विशोधन विन्यास इगतपुरी।

[2]अभिधम्मपिटके, विभंगपाळि, विपश्यना विशोधन विन्यास इगतपुरी, 1998, प्रस्तावना पृ॰ सं॰ 10।

[3]अभिधम्मपिटके, विभंगपाळि, विपश्यना विशोधन विन्यास इगतपुरी, 1998, प्रस्तावना पृ॰ सं॰ 10।

[4]अभिधम्मपिटके, विभंगपाळि, विपश्यना विशोधन विन्यास इगतपुरी, 1998, प्रस्तावना पृ॰ सं॰ 10।

[5]अभिधम्मपिटके, विभंगपाळि, विपश्यना विशोधन विन्यास इगतपुरी, 1998, प्रस्तावना पृ॰ सं॰ 11।

[6]अभिधम्मपिटके, विभंगपाळि, विपश्यना विशोधन विन्यास इगतपुरी, 1998, प्रस्तावना पृ॰ सं॰ 11।

[7]The Manual of Dhamma, By Venerable Ledi Sayadaw, Vipassana Research Institute, Page N. 3-8.

[8] The Clock of Vipassana has Struck, Sayagyi U Ba Khin, Vipassana Research Institute, Page N. 75.

[9]आत्म कथन धन्य बाबा!, आचार्य सत्यनारायण गोयन्का, विपश्यना विशोधन विन्यास, धम्मगिरि, इगतपुरी, 2005, पृ॰ सं॰ 17।

[10]आत्म कथन धन्य बाबा!, आचार्य सत्यनारायण गोयन्का, विपश्यना विशोधन विन्यास, धम्मगिरि, इगतपुरी, 2005, पृ॰ सं॰ 24।