बुद्धदत्त की जीवनी और रचनाएँ

बुद्धदत्त की जीवनी और रचनाएँ

बुद्धदत्त की जीवनी और रचनाएँ

बुद्धदत्त की जीवनी — आचार्य बुद्धदत्त पाँचवी शताब्दी में दक्षिणी भारत के चोल राज्य में उरगपुर के निवासी थे। इनके प्रारंभिक जीवन, शिक्षा और आचार्य परम्परा के बारे में अधिक जानकारी उपलब्ध नही है। इन्होंने लंका के अनुराधपुर स्तिथ महाविहार में जाकर भगवान बुद्ध के शासन-सम्बन्धी उच्च शिक्षा प्राप्त की थी। ये आचार्य बुद्धघोष के समकालीन थे

बुद्धदत्त की जीवनी और रचनाएँ  – भूमिका — महाकरूणीक तथागत भगवान गौतम बुद्ध के महापरिनिर्वाण के पश्चात् लगभग चौथी-पाँचवीं शताब्दी में मागधी भाषा में पालि-साहित्य की अट्ठकथा का लेखन कार्य प्रारम्भ हुआ। इस युग में बुद्धदत्त, बुद्धघोष और धम्मपाल तीन बड़े अट्ठकथाकार हुए। इस लेख में हम बुद्धदत्त की जीवनी और उनकी रचनाओं का उल्लेख करेगें।

बुद्धदत्त की जीवनी — आचार्य बुद्धदत्त पाँचवी शताब्दी में दक्षिणी भारत के चोल राज्य में उरगपुर के निवासी थे। इनके प्रारंभिक जीवन, शिक्षा और आचार्य परम्परा के बारे में अधिक जानकारी उपलब्ध नही है। इन्होंने लंका के अनुराधपुर स्तिथ महाविहार में जाकर भगवान बुद्ध के शासन-सम्बन्धी उच्च शिक्षा प्राप्त की थी। ये आचार्य बुद्धघोष के समकालीन थे।[i] बुद्धघोससुप्पत्ति[ii] के अनुसार आचार्य बुद्धदत्त, बुद्धघोस से पहले लंका में बुद्ध-वचनों के अध्ययनार्थ गये थे। और वही पर रहकर इन्होंने जिनालंकार, दन्तधातु और बोधिवंस को लिखा था। जब आचार्य बुद्धघोस बुद्धवचन को सिहंली से मागधी भाषा में रूपान्तर हेतु सिहंल दीव्प जा रहे थे, उसी समय आचार्य बुद्धदत्त सिहंल दीव्प से भारत आने के लिए प्रस्थान किया था। दोनों थेरों की नौकाएं आमने-सामने मिली। बुद्धदत्त ने बुद्धघोस को देखकर पूछा कि तुम्हारा क्या नाम है? और कहाँ जा रहे हो? तब आचार्य बुद्धघोस ने उनसे कहा मेरा नाम बुद्धघोष है, और जो ‘‘बुद्ध-उपदेश सिहंली भाषा में है। मैं उनका मागधी भाषा में रूपान्तर करने लंका जा रहा हूँ।’’ तब बुद्धदत्त ने उनसे कहा, ‘‘आवुस बुद्धघोस! मैं तुमसे पूर्व इस लंका दीव्प में बुद्ध-वचन को सिहंली भाषा से मागधी भाषा में रूपान्तरित करने के उद्देश्य से आया था। किन्तु मेरी आयु थोड़ी बची है, मैं अब अधिक नही जीऊँगा और इस काम को पूरा नहीं कर सकूँगा। तुम्ही साधु रूप से इस काम को पूरा करो। इस प्रकार आचार्य बुद्धदत्त लंका से लौटकर कावेरी नदी के तट पर निर्मित विहार में बैठकर पालि-अट्ठाकथाओं का लेखन कार्य किया। चूलगन्धवंस के गन्थकारकाचरिय-परिच्छेदो में आया है कि – ‘बुद्धदत्तोनामाचरियो विनयविनिच्छयो, उत्तरविनिच्छयो, अभिधम्मावतारो, बुद्धवंसस्स मधुरत्थविलासिनी नाम अट्ठकथाति, इमे चत्तारो गन्थे अकासि।[iii] अर्थात आचार्य बुद्धदत्त ने विनयविनिच्छय, उत्तरविनिच्छय, अभिधम्माअवतर और जो बुद्धवंस की  मधुरत्थविलासिनी नामक अट्ठाकथा है, इन्ही चार ग्रन्थों की रचना किया। इसी ग्रन्थ के ‘आचरियानं सञ्जातट्ठानपरिछेदो’ में इस बात का जिक्र है कि जो तेईस आचार्य जम्बुदीप से श्रीलंका गये, उनमें आचार्य बुद्धदत्त का नाम प्रथम है। इसी ग्रन्थ के ‘बुद्धदत्ताचरिय-गन्थदीपना’ में आया है कि – ‘बुद्धत्ताचरिय गन्थेसु पन विनय-विनिच्छयगन्थो अत्तनो सिस्सेन बुद्धसीहेन नाम थेरेन आयाचितेन बुद्धत्ताचरिया कतो। उत्तर-विनिच्छयगन्थो सङ्घपालेन नामेन थेरेन आयाचितेन बुद्धदत्ताचरियेन कतो। अभिधम्मावतारो नाम गन्थो अत्तनो सिस्सेन सुमति थेरेन आयाचितेन बुद्धदत्ताचरियेन कतो। बुद्धवंसस्स अट्ठकथा गन्थो तेनेव बुद्धसीहनाम थेरेन आयाचितेन बुद्धदत्ताचरियेन कतो।’[iv] अर्थात आचार्य बुद्धदत्त ने अपने ग्रन्थ विनय-विनिच्छय की रचना अपने शिष्य बुद्धसीह थेर की याचना पर किया। उत्तर-विनिच्छय की रचना सङ्पाल थेर की याचना पर किया। अभिधम्मावतारो की रचना अपने शिष्य सुमति थेर की याचना पर किया और बुद्धवंस की अट्ठकथा की रचना बुद्धसीह थेर की याचना पर किया। सद्धम्मसङ्गहो के सब्बप्पकरणकतथेरवण्णना में कहा गया कि –‘‘थेरेन बुद्धदत्तेन, रचितं यं मनोरमां। अभिधम्मावतारोति, लद्धनामेन विस्सुतं।।’[v] अर्थात बुद्धदत्त थेर द्वारा रचित ग्रन्थ अभिधम्मावतार के नाम से प्रतिद्ध हुआ। सासनवंस नामक ग्रन्थ के अनुसार पालि-साहित्य के अट्ठकथाकार आचार्य बुद्धदत्त ने जिनालंकार नामक ग्रन्थ की रचना की है। वे बुद्धघोष को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि- ‘मया आवुसो कतो जिनालंकारो अप्पसारो’ति।[vi] अर्थात आयुष्मान्! मैंने जिनालंकार नामक ग्रन्थ लिखा है, जो अल्पसार है। इस प्रकार आचार्य बुद्धदत्त जीवनपर्यंत बुद्ध शासन की सेवा कर, मरने के बाद तुषित-भवन में उत्पन्न हुए।

रचनाएँ — बुद्धदत्त द्वारा रचित अट्ठकथाएँ इस प्रकार हैं — 1. विनयविनिच्छय, 2. उत्तरविनिच्छय, 3. अभिधम्मावतार, 4. मधुरत्थविलासिनी।[vii]

  1. विनयविनिच्छय — इस ग्रन्थ में कुल 31 अध्याय हैं जिनके अन्तर्गत 3183 गाथाएँ हैं। पहले भिक्खु-विभंग के अन्तर्गत पाराजिक-कथा, संघादिसेस-कथा, अनियत-कथा, निस्सग्गिय-पाचित्तिय-कथा, पटिदेसनिय-कथा तथा सेखिय-कथा का विवरण है। इसी प्रकार भिक्खुनी-विभंग के अन्तर्गत पारजिक-कथा, संघादिसेस-कथा, निस्सग्गिय-पाचित्तिय-कथा, और पटिदेसनिय-कथा का विवेचन है।
  2. उत्तरविनिच्छय — इस ग्रन्थ में कुल 23 अध्याय हैं जिनके अन्तर्गत 969 गाथाएँ हैं। पहले भिक्खु-विभंग के अन्तर्गत पाराजिक-कथा, संघादिसेस-कथा, निस्सग्गिय-कथा, पाचित्तिय-कथा, पटिदेसनीय-कथा, सेखिय-कथा। इसी प्रकार भिक्खुनी-विभंग के अन्तर्गत पाराजिक-कथा, संघादिसेस-कथा, निस्सग्गिय-कथा, पाचित्तिय-कथा और पटिदेसनिय-कथा का विवेचन है। इस के अतिरिक्त चतुविपत्ति-कथा, अधिकरणच्चय-कथा, खन्धकपुच्छा-कथा, समुट्ठानसीस-कथा आदि का विवरण है।
  3. अभिधम्मावतार — अभिधम्मावतार गद्य-पद्य मिश्रित रचना है। इस ग्रन्थ में कुल 24 परिच्छेद हैं। प्रथम परिच्छेद में चित्त की गणना किया गया हैं। दुसरे परिच्छेद के चैतसिक निर्देश में 52 प्रकार के चैतसिको का जिक्र है। तीसरा परिच्छेद चैतसिक-विभाग-निर्देश है जिसके अन्तर्गत पद्य शैली में 52 प्रकार के चैतसिको का परिगणना किया गया है। चौथा परिच्छेद एकविधादि-निर्देश है। इसी प्रकार इस ग्रन्थ के अन्य परिच्छेदो में चित्त, चैतसिक, रूप और निर्वाण इन चारों का वर्गीकरण किया गया है।

5. मधुरत्थविलासिनी — मधुरत्थविलासिनी बुद्धवसं की अट्ठकथा है। बुद्धदत्त महाथेरा ने मधुत्थविलासिनी की निदानवण्णना में बुद्धवंस सम्बन्धी कई महत्त्वपूर्ण प्रश्न किये हैं और उनके उत्तर दिये हैं। सबसे पहले उन्होंने प्रश्न उठाया है कि बुद्धवंस का उपदेश किसने दिया है? अयं बुद्धवंसो केन देसितो? इस उत्तर में उन्होंने कहा है कि — ‘सब्बधम्मेसु अप्पटिहञाणचारेन दसबलेन चतुवेसारज्जविसारदेन धम्मराजेन धम्मस्सामिना तथागतेन सब्बञ्ञुना सम्मासम्बुद्धेन देसितो।[viii]  अर्थात् सभी धर्मों में अप्रतिम ज्ञान रखने वाले, दस बल प्राप्त, चारों वैशारद्य से विशारद धर्मराजा धर्मस्वामी तथागत सर्वज्ञ सम्यक् सम्बुद्ध के द्वारा दिया गया। अगला प्रश्न कत्थ देसितोति? अर्थात् कहाँ दिया गया, इसके उत्तर में उन्होंने कहा है कि —‘कपिलवत्थुमहानगरे निग्रोधाराममहाविहारे परमरूचिरसन्दस्सने देवमनुस्सनयननिपाभूते रतनचङ्कमे चङ्कमन्तेन देसितो। इसी प्रकार इस ग्रन्थ में सभी बुद्धों की तीस प्रकार की धर्मता का वर्णन किया गया है।

[i] पालि भाषा और साहित्य, इन्द्र चंद्र शास्त्री, हिंदी माध्यम कार्यान्वय निदेशालय दिल्ली विश्वविद्यालयष

[ii] बुद्धघोसुप्पत्ति, संपादक एवं अनुवादक डॉ.राजेश रंजन, सम्यक प्रकाशन नई दिल्ली।   

[iii] चूलगन्धवंस, गन्थकारकाचरिय-परिच्छेदो, विपश्यना विशोधन विन्यास, धम्मगिरि, इगतपुरी।

[iv] चूलगन्धवंस, बुद्धदत्ताचरिय-गन्थदीपना , विपश्यना विशोधन विन्यास, धम्मगिरि, इगतपुरी।

[v] सद्धम्मसङ्गहो, सब्बप्पकरणकतथेरवण्णना, विपश्यना विशोधन विन्यास, धम्मगिरि, इगतपुरी।

[vi] जिनालंकार, , विपश्यना विशोधन विन्यास, धम्मगिरि, इगतपुरी।

[vii] पालि-साहित्य का इतिहास, डां. भरतसिंह उपाध्याय, हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग

[viii] बुद्धवंस-अट्ठकथा,  मधुरत्थविलासिनी, विपश्यना विशोधन विन्यास, धम्मगिरि, इगतपुरी।

सिद्धार्थ गौतम द्वारा बुद्धत्व प्राप्ति

Attainment of Buddhahood by Siddhartha Gautama

सिद्धार्थ गौतम द्वारा बुद्धत्व प्राप्ति | Siddharth Gautam Dvaara Buddhatv Praapti

सिद्धार्थ गौतम द्वारा बुद्धत्व प्राप्ति | Siddharth Gautam Dvaara Buddhatv Praapti – भगवान बुद्ध कहते हैं कि बोधि से पहले बोधिसत्त्व होते समय मुझे ऐसा हुआ

भगवान बुद्ध कहते हैं कि बोधि से पहले बोधिसत्त्व होते समय मुझे ऐसा हुआ कि गृहवास जंजाल है, मैल का मार्ग है, प्रव्रज्या खुला स्थान है। इस नितान्त सर्वथा परिपूर्ण सर्वथा परिशुद्ध खरादे शंख जैसे उज्वल ब्रह्मचर्य का पालन घर में रहते हुए सम्भव नहीं है। क्यों न मैं सिर दाढी मुंड़ा कषाय वस्त्र पहनकर घर से बेघर हो प्रव्रजित हो जाउं। तब उन्होंने कहा कि-‘अपरेन समयेन दहरोव समानो सुसुकाळकेसो भद्रेन योब्बनेन समन्नागतो पठमेन वयसा अकामकानं मातापितूनं अस्सुमुखानं रूदन्तानं केसमस्सुं ओराहेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजिं।[1] अर्थात् उस समय मैं तरूण सुन्दर काले केशवाला भद्र यौवन से युक्त प्रथम वयस में माता-पिता को अश्रुमय रोते हुए छोड़कर सिर मुड़ाय कसाय वस्त्र पहन कर घर से बेघर हो प्रव्रजित हुआ। तब मैं प्रव्रजित हो अनुत्तर कुशल शांतिपद को खोजते जहां आलार कलाम था वहाँ गया। जाकर कालाम से कहा आवुस कालाम! मैं इस धर्म विनय में ब्रह्मचर्य वास करना चाहता हूँ। ऐसा कहने पर आलार कालाम ने मुझे कहा विहरो आयुष्मान! यह ऐसा धर्म है जिसमें विज्ञ पुरूष जल्द ही शीघ्र आचार्यत्व को स्वयं जानकर साक्षात्कार कर प्राप्तकर विहार करेगा। तब मैंने जल्द ही उस धर्म को पूरा कर लिया। इस धर्म को केवल श्रद्धा से स्वयं जानकर, साक्षात्कार कर, प्राप्तकर विहरने लगा। फिर मेरे मन में हुआ कि आलार कालाम जरूर इस धर्म को जानता देखता विहरता होगा। तब मैं जहां आलार कालाम था वहां गया, जाकर आलार कालाम से पूछा आवुस कालाम तुम इस धर्म को स्वयं जानकर, साक्षात्कार कर, प्राप्तकर कहाँ तक बतलाते हो? ऐसा कहने पर आलार कालाम ने आकिञ्‍चञ्‍ञायतनं[2] बतलाया। तब मुझे ऐसा हुआ कि आलार कालाम के पास ही श्रद्धा नहीं है, मेरे पास भी है। आलार कालाम के पास ही समाधि नहीं है, मेरे पास भी है। आलार कालाम के पास ही प्रज्ञा नहीं है, मेरे पास भी है। क्यों न जिस धर्म को आलार कालाम स्वयं जानकर साक्षात्कार कर प्राप्तकर विहरता हूँ कहता है, उस धर्म को साक्षात्कार करने के लिए मैं भी उद्योग करूं। तब मैं बिना देर किए शीघ्र ही उस धर्म को स्वयं जानकर, साक्षात्कार कर, प्राप्तकर विहरने लगा। तब मेरे मन में हुआ कि यह धर्म न निर्वेद के लिए है, न वैराग्य के लिए है, न निरोध के लिए है, न उपशमन के लिए है, न अभिज्ञा के लिए है, न सम्बोधि के लिए है, न निर्वाण के लिए है, यह केवल आकिंचन्यायतन तक उत्पन्न होने के लिए है। तब मैं इस धर्म को अपर्याप्त मानकर उदास हो चल दिया।

इस प्रकार क्या कुशल है? की गवेषणा करता सर्वोत्तम श्रेष्ठ शांतिपद को खोजता जहां उद्दक रामपुत्त था, वहां गया। जाकर उद्दक रामपुत्त से बोला आवुस! इस धर्म वियन में मैं ब्रह्मचर्य पालन करना चाहता हूँ। ऐसा कहने पर उद्दक रामपुत्त मुझसे बोला विहरो आयुष्मान यह वैसा धर्म है जिसमें विज्ञ पुरूष जल्दी अपने आचार्यत्व को स्वयं जानकर, साक्षात्कर, प्राप्तकर विहार करेगा। तब मैंने शीघ्र ही उस धर्म को पूरा कर लिया। तब मेरे मन में हुआ कि उद्दक रामपुत्त जरूर इस धर्म को जानता देखता विहरता होगा। तब मैं जहां उद्दक रामपुत्त था वहां गया, जाकर उद्दक रामपुत्त से पूछा आवुस रामपुत्त तुम इस धर्म को स्वयं जानकर, साक्षात्कर, प्राप्तकर कहाँ तक बतलाते हो? ऐसा कहने पर उद्दक रामपुत्त ने नेवसञ्‍ञानासञ्‍ञायतनं[3] बतलाया। तब मुझे ऐसा हुआ कि उद्दक रामपुत्त के पास ही श्रद्धा नहीं है, मेरे पास भी है। उद्दक रामपुत्त के पास ही वीर्य नहीं है, मेरे पास भी है। उद्दक रामपुत्त के पास ही स्मृति नहीं है, मेरे पास भी है। उद्दक रामपुत्त के पास ही समाधि नहीं है, मेरे पास भी है। उद्दक रामपुत्त के पास ही वीर्य नहीं है, मेरे पास भी है। उद्दक रामपुत्त के पास ही स्मृति नहीं है, मेरे पास भी है। उद्दक रामपुत्त के पास ही समाधि नहीं है, मेरे पास भी है। उद्दक रामपुत्त के पास ही प्रज्ञा नहीं है, मेरे पास भी है। क्यों न जिस धर्म को उद्दक रामपुत्त स्वयं जानकर साक्षात्कर प्राप्तकर विहरता हूँ कहता है, उस धर्म को साक्षात्कार करने के लिए मैं भी उद्योग करूं। तब मैं बिना देर किए शीघ्र ही उस धर्म को स्वयं जानकर, साक्षात्कर, प्राप्तकर विहरने लगा। तब मेरे मन में हुआ कि यह धर्म न निर्वेद के लिए है, न वैराग्य के लिए है, न निरोध के लिए है, न उपशमन के लिए है, न अभिज्ञा के लिए है, न सम्बोधि के लिए है, न निर्वाण के लिए है, यह केवल नैवसंज्ञानासंज्ञायतनतक उत्पन्न होने के लिए है। तब मैं इस धर्म को अपर्याप्त मानकर उदास हो चल दिया। [4]

तब मैं क्या कुशल है? कि गवेषणा करता सर्वोत्तम श्रेष्ठ शांतिपद को खोजते हुए मगध में क्रमशः चारिका करते जहां उरूवेला सेनानी निगम था वहां पहुंचा। वहां मैंने रमणीय भूमिभाग सुन्दर वनखण्ड सुप्रतिष्ठित बहती श्वेत नदी और चारो ओर रमणीय गोचर ग्राम देखा। तब मुझे ऐसा हुआ कि यह भूमिभाग प्रयत्न इच्छुक कुलपुत्र के लिए यह बहुत ठीक स्थान है। यह सोच वहीं बैठ गया और महानतप आरम्भ किया। [5]

तब मैंने श्वासरहित ध्यान कर शरीर को भिन्न-भिन्न प्रकार से कष्ट देता था। देवता भी कहते थे कि श्रमण गौतम मर गया। कोई-कोई देवता यों कहते थे कि श्रमण गौतम नहीं मरा, न मरेगा श्रमण गौतम अर्हत है। अर्हत का तो इस प्रकार का विहार होता ही है। तब मुझे यह हुआ क्यों न मैं आहार को बिलकुल ही छोड़ देना स्वीकार करूं। तब देवताओं ने मेरे पास आकर कहा मार्ष! तुम आहार का बिलकुल छोड़ना स्वीकार करो। हम तुम्हारे रोम-कूपों द्वारा दिव्य ओज डाल देगें। उसी से तुम निर्वाह करोगे। तब मुझे यह हुआ कि मैं अपने को सब तरह से निराहारी जानूंगा और देवता रोम-कूपों द्वारा दिव्य ओज मेरे भीतर डालेंगे, मैं उसी से निर्वाह करूंगा। यह जान मेरा तप झूठा होगा। मैंने उन देवताओं का प्रत्याख्यान किया रहने दो। [6] तब मुझे यह हुआ कि क्यों न मैं थोड़ा-थोड़ा आहार ग्रहण करूं। जैसे पसर भर मूँग का जूस या कुलथी का जूस या मटर का जूस या अरहर का जूस। तब मैं थोड़ा-थोड़ा पसर-पसर भर मूंग का, कुल्थी का, मटर का, अरहर का जूस ग्रहण करने लगा। इस प्रकार आहार कम करने से मेरा शरीर दुर्वलता की चरम सीमा पर पहुंच गया। इस अल्प आहार से उंट के पैर जैसा मेरा कूल्हा हो गया। सूओं की पाती जैसी उंची-नीची मेरे पीठ के कांटे हो गये। पुरानी शाला की कड़ियां जैसी अलग-विलग मेरी पसुलियां हो गयी। जैसे गहरे कुए में पानी का तारा बहुत दूर दिखायी देता है वैसी मेरी आंखे हो गयीं। जैसे कच्ची तोड़ी लौकी हवा-धूप से चिचुक जाती है, मुर्झा जाती है, ऐसे ही मेरे सिर की खाल चिचुक गई, मुर्झा गयी। यदि मैं पेट की खाल को मसलता तो पीठ के कांटे को पकड़ लेता। पीठ के कांटे को मसलता तो पेट की खाल को पकड़ लेता। इस प्रकार अल्पाहार से मेरी पीठ के कांटे और पेट की खाल बिलकुल सट गई थी। यदि मैं पाखाना या मूत्र करता तो वहीं भहराकर गिर पड़ता था। जब मैं काया को सहराते हुए गात्र को मसलता था तो हाथ से गात्र मसलते वक्त काया से सड़ी जड़ वाले रोम झड़ जाते थे। मनुष्य भी मुझे देखकर कहते थे कि श्रमण गौतम काला है। कोई-कोई मनुष्य कहते थे कि श्रमण गौतम काला नहीं श्याम है। कोई-कोई मनुष्य यों कहते की श्रमण गौतम काला नहीं है, न श्याम है, मंगुर वर्ण का है। इस प्रकार मेरा परिशुद्ध, परिवोदात छविवर्ण नष्ट हो गया। तब मैं इस घोर दुक्ख, तीव्र और कटु वेदना से भी उत्तर मनुष्य धर्म को न पा सका। विचार हुआ कि बोधि के लिए क्या कोई दूसरा मार्ग है?[7]

तब मैं इस कठिन छः वर्षों की काय-दंडन दुष्करचर्या को छोड़ मुझे यों हुआ किअभिजानामि खो पहानं पितु सक्कस्स कम्मन्ते सीताय जम्बुच्छायाय निसिन्नो विविच्चेव कामेहि विविच्च अकुसलेहि धम्मेहि सवितक्कं सविचारं विवेकजं पीतिसुखं पठमं झानं उपसम्पज्ज विहरथ, सिया नु खो मग्गो बोधायाति।[8] अर्थात् मैंने पिता शुद्धोदन शाक्य के खेत पर जामुन की ठण्डी छाया के नीचे बैठ, काम और अकुशल धर्मों को हटाकर प्रथम ध्यान को प्राप्त हो विहार किया था। शायद वह मार्ग बोधि का हो। तब मैं बोधिवृक्ष के तले दृढ़तापूर्वक पालथी मार कर बैठ गया और आनापान की साधना शुरू कर दी। शुद्ध सांस के प्रति जागरूक रहते-रहते चित्त एकाग्र होने लगा। रात्रि के प्रथम प्रहर में ही असंख्य पूर्वजन्मों की स्मृतियां जाग उठीं और देखा कि न जाने कितनी बार विपश्यना साधना की है, परंतु सम्यक संबुद्ध बनने का संकल्प होने के कारण, सारी पारमिताओं की परिपूर्णता न होने के कारण, इंद्रियातीत अवस्था का साक्षात्कार न हो सका। अब समय पका है। सारी पारमिताएं पूर्णता को प्राप्त हो चुकी हैं। अंतर में जागी हुई पुरानी विपश्यना साधना के सहारे काम करते-करते रात्रि के अंतिम प्रहर में सारे अनुशय क्लेशों और सुषुप्त-आस्रवों का क्षय हुआ। आलय-चित्त निरालय हुआ, विकार-विमुक्त हुआ। सम्यक संबोधि जागी। आस्रव-विहीन वीतराग योगी सम्यक संबुद्ध बन गया।

 भगवान बुद्ध ने सांसारिक दुःखों के निवारण हेतु जो अंतिम साधना की, जिससे उन्हें बुद्धत्व प्राप्त हुआ, जिससे निर्वाण की प्राप्ति हुई, उसी साधना का नाम विपश्यना है। विपश्यना उस विशिष्ट ज्ञान और दर्शन को कहते हैं, जिनके द्वारा धर्मों की अनित्यता, दुःखता और अनात्मता प्रकट होति है।[9] विपश्यना साधना प्राचीन संस्कृति की एक विशिष्ट देन है। शील, समाधि और प्रज्ञा इस साधना के आवश्यक अंग हैं। प्रायोगिक ज्ञान और उस ज्ञान के आधार पर जीवन-दर्शन और दर्शन के आधार पर समझपूर्वक चरित्र ये तीनों इस साधना में व्याप्त हैं। तन और मन के स्थूल और सूक्ष्म अनुभवों से परिचय और उनका उपचार विपश्यना साधना से सम्भव है। यह साधना प्रयोग प्रधान के साथ-साथ आचरण प्रधान भी है। विपश्यना प्रज्ञा की वह अंतिम कड़ी है जिसके द्वारा अंतर्मुखी होकर अनित्य, दुःख और अनात्म का अनुभव करते हुए परम सत्य यानी निर्वाणिक अवस्था का साक्षात्कार होता है। विपश्यना साधना यही है कि दुःख के अस्तित्व को स्वीकार करो और प्रज्ञापूर्वक सामना करते हुए उसका गहरा निरोध कर लो। विपश्यना शब्द का अर्थ है विशेष रूप से देखना यानी साक्षीभाव से अपने भीतर की सच्चाई को देखना है। यह विद्या चित्त और शरीर का शोधन करती है। यह आत्मनिरीक्षण द्वारा आत्मशोधन की विधि है। इसका आरम्भ अपने स्वाभाविक श्वास के निरीक्षण से होता है जिससे चित्त एकाग्र होता है। इससे प्राप्त कुशाग्र जागरूकता द्वारा अपने शरीर और मन के परिवर्तनशील स्वभाव का दर्शन होता है। इस विद्या द्वारा अनित्य, दुःख और अनात्म के विश्वजनीन सत्य का अनुभव होता है। भगवान बुद्ध के शब्दों में इसे दुःख निवारण की साधना कहते हैं। दुःख का साक्षत्कार, दुःख के कारण का साक्षात्कार, दुःख के निवारण का साक्षात्कार और दुःख निवारण विधि का साक्षात्कार ये सारी बातें विपश्यना साधना में निहित हैं। इस साधना में बार-बार इस बात का अनुभव होता है कि यह शरीर संवेदनाओं का बना हुआ है। ये संवेदनाएं क्षण-क्षण में अनगिनत बार बनती और नष्ट होती रहती हैं कोई संवेदना टिकने वाली नहीं होती है। दुःख की संवेदना आये तो उससे द्वेष न किया जाय और यदि सुख की संवेदना आये तो उससे राग या चिपकाव न किया जाय, क्योंकि दोनों ही बदलने वाली हैं। हर संवेदना को तटस्थ-रूप में देखने का अभ्यास किया जाय और चित्त को समता में स्थापित रखा जाय, यही इस साधना का केंद्र बिंदु है।

इस प्रकार विपश्यना साधना करते हुए उस समय भगवान बोधिवृक्ष के नीचे विमुक्त्ति सुख का आनन्द लेते हुए सप्ताह भर एक आसन पर बैठे रहे। तब भगवान ने रात के प्रथम, द्वितीय और तृतीय तीनो यामों में प्रतीत्यसमुत्पाद का अनुलोम और प्रतिलोम मनन किया। कि अवि़द्या के कारण संस्कार होता है, संस्कार के कारण विज्ञान होता है, विज्ञान के कारण नाम-रूप, नाम रूप के कारण छ आयतन, छ आयतनों के कारण स्पर्श, स्पर्श के कारण वेदना, वेदना के कारण तृष्णा, तृष्णा के कारण उपादान, उपादान के कारण भव, भव के कारण जाति, जाति के कारण जरा, मरण, शोक, रोना पीटना, दुःख, चित्त विकार, और चित्त खेद उत्पन्न होते हैं। इसी प्रकार अविद्या के विल्कुल विराग से निरोध होने से संस्कार का निरोध होता है, संस्कार निरोध से विज्ञान का निरोध होता है, विज्ञान निरोध से नाम-रूप का निरोध होता है, नाम-रूप के निरोध से छ आयतनों का निरोध होता है, छ आयतनों के निरोध से स्पर्श का निरोध होता है, स्पर्श के निरोध से वेदना का निरोध होता है, वेदना के निरोध से तृष्णा का निरोध होता है, तृष्णा के निरोध से उपादान का निरोध होता है, उपादान के निरोध से भव का निरोध होता है, भव के निरोध से जाति का निरोध होता है, जाति के निरोध से जरा, मरण, शोक,रोना-पीटना, दुःख, चित्त-विकार और चित्त-खेद का निरोध हो जाता है। इस प्रकार केवल दुःख स्कन्ध का निरोध होता है।[10] मज्झिमनिकाय भयभेरव सुत्त में ब्राह्मण जानुस्सोणि के पूछने पर भगवान अपनी संबोधि प्राप्ति के बारे में कहते हैं कि- ‘ब्राह्मण! मैंने न दबने वाला वीर्य (उद्योग, ध्यान के लिए परिश्रम) आरम्भ किया। उस समय मेरी स्मृति जागृत थी, मेरी काया प्रशान्त और असारद्ध थी। समाहित किया हुआ चित्त एकाग्र था। इस प्रकार हे ब्राह्मण! मैं कामों से रहित, अकुशल धर्मों से रहित, विवके से उत्पन्न सवितर्क सविचार, प्रीतीसुख वाले प्रथम ध्यान को प्राप्त हो विहरने लगा। फिर वितर्क और विचार के शान्त होने पर भीतरी शान्त और चित्त की एकाग्रता वाले अ-वितर्क अ-विचार समाधि और प्रीतीसुख वाले द्वितीय ध्यान को प्राप्त हो विहरने लगा। फिर प्रीति से विरक्त हो, उपेक्षक बन स्मृति-संप्रजन्य से युक्त हो शरीर से सुख अनुभवकरते, जिसे कि आर्य उपेक्षक, स्मृतिमान् सुख विहारी कहते हैं, उस तृतीय ध्यान को प्राप्त हो विहरने लगा। फिर सुख और दुक्ख के परित्याग से सौमनस्य और दौर्मनस्य के अनुभव पहले अन्त हो जाने से, सुख-दुक्ख-रहित जिसमें उपेक्षा से स्मृति की शुद्धि हो जाती है, उस चतुर्थ ध्यान को प्राप्त हो विहरने लगा। सो इस प्रकार चित्त के एकाग्र, परिशुद्ध, पर्यवदात, अंगण रहित, उपक्लेश रहित, मृदुभूत, कायोपयोगी स्थिर, अचलता प्राप्त और समाधियुक्त हो जाने पर पूर्व जन्मों की स्मृति ज्ञान के लिए मैंने चित्त को झुकाया। फिर अनके पूर्व-निवासों को स्मरण करने लगा, जैसे कि एक जन्म को भी, दो जन्म को भी, तीन जन्म को भी, चार जन्म को भी, पांच जन्म को भी, दस जन्म को भी, बीस जन्म को भी, चालीस जन्म को भी, पचास जन्म को भी, सौ जन्म को भी, हजार जन्म को भी, सौ हजार जन्म को भी, अनेक संवर्त कल्पों को भी, अनेक विवर्त कल्पों को भी, अनेक संवर्त-विवर्त-कल्पों को भी स्मरण करने लगा। तब मैं अमुक स्थान पर इस नाम वाला, इस गोत्र वाला, इस वर्ण वाला, इस अहार वाला अमुख प्रकार के सुख-दुक्ख को अनुभव करता इतनी आयु तक रहा। वहां से च्युत हो अमुक स्थान में उत्पन्न हुआ। वहां भी इस नाम वाला, इस गोत्र वाला, इस वर्ण वाला, इस अहार वाला अमुक प्रकार के दुक्ख-सुख को अनुभव करता इतनी आयु तक रहा। फिर वहां से च्युत हो अब यहां उत्पन्न हुआ। इस प्रकार आकार और उद्देश्य के सहित अनेक प्रकार के पूर्व-निवासों को स्मरण करने लगा। तब ब्राह्मण इस प्रकार प्रमाद रहित, तत्पर तथा आत्मसंयमयुक्त विहरते हुए, रात के पहले याम में मुझे पहली विद्या प्राप्त हुई, अविद्या नष्ट हुई, विद्या उत्पन्न हुई, तम नष्ट हुआ, आलोक उत्पन्न हुआ। सो इस प्रकार चित्त के समाहित, परिशुद्ध, पर्यवदात, अंगण रहित, उपक्लेश रहित, मृदुभूत, कायोपयोगी, स्थिर, अचलता प्राप्त और समाधियुक्त हो जाने पर प्राणियों की च्युति और उत्पत्ति के ज्ञान के लिए चित्त को झुकाया। सो मैं अ-मानुष, विशुद्ध, दिव्य चक्षु से अच्छे-बुरे, सुर्वण-दुर्वण, सुगति वाले, दुर्गति वाले प्राणियों को मरते उत्पन्न होते देखने लगा, कर्म के अनुसार गति को प्राप्त होते प्राणियों को पहचानने लगा। कि यह प्राणधारी लोग कायिक दुराचार से युक्त, वाचिक दुराचार से युक्त, मानसिक दुराचार से युक्त, आर्यों के निन्दक मिथ्या मत वाले, मिथ्या-दृष्टि से कर्म करने वाले, काया को छोड़ने पर मरने के बाद अपाय, दुर्गति, विनिपात नरक योनि में उत्पन्न हुए हैं। और जो प्राणधारी लोग कायिक, वाचिक, मानसिक सदाचार से युक्त, आर्यों के अ-निन्दक सम्यक् दृष्टि वाले, सम्यक्-दृष्टि-सम्बन्धी कर्म करने वाले हैं। ये काया छोड़ने पर मरने के बाद सुगति, स्वर्ग लोक को प्राप्त हुए हैं। अतः ब्राह्मण इस प्रकार प्रमादरहित, तत्पर तथा आत्मसंयुक्त विहरते हुए, रात के मध्यम याम में यह मुझे दूसरी विद्या प्राप्त हुई, अविद्या नष्ट हुई, विद्या उत्पन्न हुई, तम नष्ट हुआ, आलोक उत्पन्न हुआ। सो इस प्रकार चित्त के एकाग्र, परिशुद्ध, पर्यवदात, अंगण रहित, उपक्लेश रहित, मृदुभूत, कायोपयोगी, स्थिर, अचलता प्राप्त और समाधियुक्त हो जाने पर आस्रवों के क्षय के ज्ञान के लिए चित्त को झुकाया। फिर मैंने यह दुक्ख है इसे यथार्थ् से जान लिया, यह दुक्ख-समुदय है इसे यथार्थ् से जान लिया, यह दुक्ख-निरोध है इसे यथार्थ् से जान लिया, यह दुक्ख-निरोधगामिनी प्रतिपद् है इसे यथार्थ् से जान लिया। यह आस्रव है इसे यथार्थ्से जान लिया, यह आस्रव का समुदय है इसे यथार्थ् जान लिया, यह आस्रव निरोध है इसे यथार्थ् जान लिया, यह आस्रवनिरोधगामिनी प्रतिपद् है इसे यथार्थ् जान लिया। इस प्रकार देखते इस प्रकार जानते मेरा चित्त काम आस्रव से मुक्त हो गया, भव आस्रव से मुक्त हो गया, अविद्या आस्रव से मुक्त हो गया। छूट जाने पर छूट गया ऐसा ज्ञान हुआ। जन्म खत्म हो गया, ब्रह्मचर्य पूरा हो गया, जो करना था सो कर लिया, अब यहां करने के लिए कुछ नहीं है इसे जान लिया। इस प्रकार ब्राह्मण रात के अन्तिम याम में यह मुझे तीसरी विद्या प्राप्त हुई, अविद्या नष्ट हुई, विद्या उत्पन्न हुई, तम नष्ट हुआ, अलोक उत्पन्न हुआ।[11] इस प्रकार मैं सम्यक सम्बुद्ध हुआ।

इस प्रकार सम्यक-सम्बुद्ध हो भगवान ने बोधिवृक्ष के नीचे सप्ताह भर एक आसन से मोक्ष का आनंद लेते हुए बैठे रहे। तब भगवान आठवें दिन यानी दूसरे सप्ताह में समाधि से उठकर वज्र आसन से थोडा पूर्व-उत्तर दिशा में खडे हो वज्र आसन और बोधिवृक्ष को बिना पलक गिराये एक टक देखते रहे, यह स्थान अनिमेष चैत्य कहलाया।[12] फिर वज्र आसन और अनिमेष चैत्य के बीच पूर्व से पश्चिम लम्बे रत्न-चंक्रम पर टहलते हुए तीसरा सप्ताह विताया। यह स्थान रत्न चैत्य कहलाया।[13] रतन चैत्य के पश्चिम दिशा में देवताओं ने रतनघर बनाया, इस रतनघर में बैठकर अभिधम्मपिटक पर विचार करते हुए सप्ताह भर बिताया, इसलिए यह घर रतन चैत्य कहलाया।[14] इस प्रकार भगवान बुद्ध बोधिवृक्ष के आस-पास चार सप्ताह बिताकर पाँचवा सप्ताह अजपाल निग्रोध वृक्ष के नीचे एक आसन पर बैठ कर विमुक्ति सुख का आनंद लेते हुए विताया। फिर भगवान अजपाल निग्रोध वृक्ष के नीचे से उठकर मुचलिन्द वृक्ष के नीचे छठा सप्ताह विमुक्ति सुख का आनंद लेते हुए बैठे रहे, तव मुचलिन्द नागराज आकर अपने शरीर से भगवान के शरीर को सात बार लपेट कर शिर के उपर बड़ा सा फन करके शरीर की सुरक्षा किया।[15] तब भगवान सप्ताह बीतने पर समाधि से उठकर मुचलिन्द वृक्षके नीचे से राजायतन वृक्ष के नीचे विमुक्त्ति सुख का आनंद लेते हुए सप्ताह भर एक आसन से बैठे रहे। उस समय तपस्सु और भल्लिक दो व्यापारी उत्कल देश से उस स्थान पर पहुँचे जहाँ भगवान बैठे हुए थे। तब उनकी जात विरादरी के देवताओं ने तपस्सु और भल्लिक व्यापारियों से कहा हे मित्र बुद्धपद को प्राप्त हो यह भगवान राजायतन के नीचे विहार कर रहें हैं। जाओ उन भगवान को मट्ठे और मधुपिण्ड से सम्मानित करो, यह तुम्हारे लिए चिरकाल तक हित और सुख देने वाला होगा। उस समय भगवान ने सोचा कि तथागत भिक्षा को हाथ में नहीं ग्रहण किया करते, मैं मट्ठा और मधुपिण्ड किस पात्र में ग्रहण करूं। तब चारों महाराज भगवान के मन की बात जानकर चारो दिशाओं से चार पत्थर के भिक्षापात्र भगवान के पास ले गये, कि भगवान इसमें मट्ठा और मधुपिण्ड ग्रहण कीजिए। भगवान ने उस अभिनव शिलामय पात्र में मट्ठा और मधुपिण्ड ग्रहण कर भोजन किया। उस समय तपस्सु और भल्लिक व्यापारियों ने भगवान से कहा-भन्ते! हम दोनो भगवान तथा धर्म की शरण जाते हैं। आज से हम दोनो को अंजलिबद्ध शरणागत उपासक जानें। इस प्रकार ये दोनों दो वचनों से प्रथम उपासक हुए।[16]

सात सप्ताह विमुक्त्ति सुख में व्यतीत करने के बाद भगवान अजपाल निग्रोध के नीचे विहार कर रहे थे। उस समय ध्यान करते हुए भगवान के चित्त में वितर्क पैदा हुआ कि वास्तव में मैंने जो धर्म प्राप्त किया है वह गम्भीर, दुदर्शन, दुर-ज्ञेय, शांत, उत्तम, तर्क से अप्राप्य, निपुण और पण्डितों द्वारा जानने योग्य है। यह प्रजा आसक्ति में रमण करने वाली, आसक्ति में रत, आसक्ति में प्रसन्न है। काम में रमण करने वाली इस प्रजा के लिए, यह जो कार्य कारण रूपी प्रतीत्य समुत्पाद है, और सभी संस्कारों का शमन, सभी आसक्तियों का परित्याग, तृष्णा का क्षय, विराग, निरोध और निर्वाण रूपी धर्म है। यदि मैं इसका उपदेश करूं और ये न समझ पावें तो मेरे लिए दुःख और हैरानी ही होगी। भगवान के द्वारा ऐसा विचार करने पर उनका चित्त धर्म प्रचार की ओर न झुककर अल्प उत्सुकता की ओर झुक गया। तब सहम्पति ब्रह्मा ने भगवान के चित्त की बात को जानकर धर्म प्रचार के लिए तीन बार निवेदन किया कि हे भगवान धर्म का उपदेश करें। हे सुगत धर्म का उपदेश करें। हे शोक-रहित, शोक-निमग्न जन्मजरा से पीड़ित जनता की ओर देखो। तब भगवान ने ब्रह्मा के अभिप्राय को जानकर और प्राणियों पर दया करके बुद्ध नेत्र से लोक का अवलोकन किया। बुद्ध चक्षु से लोक को देखते हुए भगवान ने जीवों को देखा उनमें कितने ही अल्पमल, तीक्ष्णबुद्धि, सुन्दर स्वभाव, समझाने में सुगम प्राणियों को देखा। देखकर सहम्पति ब्रह्मा से कहा उनके लिए अमृत का द्वार बंद हो गया जो कान होने पर भी श्रद्धा को छोड़ देते हैं। हे ब्रह्मा पीड़ा का ख्यालकर मैं मनुष्यों को निपुण, उत्तम धर्म को नहीं कहता था। तब ब्रह्मा सहम्पति यह जान कि भगवान ने धर्मउपदेश के लिए मेरी बात मान ली भगवान को अभिवादन कर प्रदक्षिणाकर वहीं अन्तर्धान हो गया।[17]


[1]मज्झिमनिकाय, मज्झिमपण्णासपाळि, बोधिराजकुमारसुत्तं, अनु. सं. 327, विपश्यना विशोधन विन्यास, धम्मगिरी इगतपुरी।

[2]मज्झिमनिकाय, मज्झिमपण्णासपाळि, बोधिराजकुमारसुत्तं, अनु. सं. 327, विपश्यना विशोधन विन्यास, धम्मगिरी इगतपुरी।

[3]मज्झिमनिकाय, मज्झिमपण्णासपाळि, बोधिराजकुमारसुत्तं, अनु. सं. 328, विपश्यना विशोधन विन्यास, धम्मगिरी इगतपुरी।

[4]मज्झिम निकाय, बोधिराजकुमार सुत्त, अनु, राहुल सांकृत्यायन, सम्यक प्रकाशन, नई दिल्ली-63, पृ सं. 382।

[5]मज्झिम निकाय, बोधिराजकुमार सुत्त, अनु, राहुल सांकृत्यायन, सम्यक प्रकाशन, नई दिल्ली-63, पृ सं. 384।

[6]मज्झिम निकाय, बोधिराजकुमार सुत्त, अनु, राहुल सांकृत्यायन, सम्यक प्रकाशन, नई दिल्ली-63, पृ सं. 385।

[7]मज्झिम निकाय, बोधिराजकुमार सुत्त, अनु, राहुल सांकृत्यायन, सम्यक प्रकाशन, नई दिल्ली-63, पृ सं. 385।

[8]मज्झिमनिकाय, मज्झिमपण्णासपाळि, राजवग्गो, बोधिराजकुमार सुत्तं, अनु. सं. 327, विपश्यना विशोधन विन्यास, धम्मगिरी इगतपुरी।

[9]विपश्यना लोकमत, भाग 1, विपश्यना विशोधन विन्यास, धम्मगिरी इगतपुरी।

[10]विनयपिटक, महावग्गपाळि,  बोधिकथा, अनु. सं. 1, विपश्यना विशोधन विन्यास, धम्मगिरी, इगतपुरी।

[11]मज्झिम निकाय, भयभेरव-सुत्त, अनुवादक-महापंडित राहुल सांकृत्यायन, पृ.सं. 52, सम्यक प्रकाशन नई दिल्ली-63, 2020,

[12]बोधिरूक्खंच अनिमिसेहि अक्खीहि आलोकयमानो सत्ताहं वीतिनामेसि, तं ठानं अनिमिसचेतियं नाम जातं। महावग्ग-अट्ठकथा, विपश्यना विशोधन विन्यास, पृ. स. 4, अनु.सं. 4।

[13]तं ठानं रतनचङ्कमचेतियं नाम जातं। महावग्ग-अट्ठकथा, विपश्यना विशोधन विन्यास, पृ. स. 4, अनु. सं. 4।

[14]तं ठानं रतनघरचेतियं नाम जातं। महावग्ग-अट्ठकथा, विपश्यना विशोधन विन्यास, पृ. स. 4, अनु. सं. 4

[15]अथ खो मुचलिन्दो नागराजा सकभवना निक्खमित्वा भगवतो कायं सत्तक्खत्तुं भोगेहि परिक्खिपित्वा उपरिमुद्धानि महन्तं फणं करित्वा अट्ठासि।-विनयपिटक महावग्गपाळि, विपश्यना विशोधन विन्यास, धम्मगिरी, इगतपुरी, महाराष्ट्र, पृ.सं. 4,अनु. 5।

[16]विनयपिटक, महावग्ग, राजायतन कथा, अनु. राहुल सांस्कृत्यायन।

[17]विनयपिटक, महावग्गपालि,  महास्कन्धक, ब्रह्मयाचनाकथा, अनु. सं. 7,8,9, पृ.स. 5, विपश्यना विशोधन विन्यास, धम्मगिरी, इगतपुरी।

Vipassana Meditation | विपश्यना साधना

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विपश्यना साधना का उद्भव विकास एवं आचार्य परम्परा

बोधिसत्व सिद्धार्थ गौतम को छः बर्षों की कठिन तपश्यचर्या के उपरांत वैशाख पूर्णिमा की रात को बोधिवृक्ष के नीचे साधना में लीन जन्म-मृत्यु से परे लोकातीत अवस्था को खोजते-खोजते अपने ही शरीर में मन से जुड़ी हुई शारीरिक संवेदनाओं की अनुभूति होने लगी। इन संवेदनाओं को समता भाव से देखते-देखते चित्त निर्मल हुआ, विकार विहीन हुआ और आगे बढ़ते हुए इन्द्रियातीत अवस्था का दर्शन हुआ जिसे भगवान बुद्ध ने सम्यक संबोधि कहा। जिस साधना-विधि के द्वारा अर्थात् ‘देखते रहने’ के फलस्वरूप सिद्धार्थ गौतम को बुद्धत्व की प्राप्ति हुई थी, उस साधना विधि को भगवान बुद्ध ने ‘विपश्यना’ शब्द से सम्बोधित किया। अतः इस प्रकार से विपश्यना साधना का उद्भव हुआ। इस प्रकार हम कह सकते है कि बुद्धत्व प्राप्ति और विपश्यना का उद्भव साथ-साथ हुआ।

विपश्यना के द्वारा वे बुद्ध बने तो सारा मन करूणा से भर गया। लोक कल्याण की भावना से ओत-प्रोत हो गये। विपश्यना, संबोधि प्राप्त करने की एक नैसर्गिक विधि है। इसलिए यह धर्म-गंगा बिना बहे नहीं रूक सकती थी। मानव कल्याण हेतु इसका प्रसार होना ही था। आषाढ़ मास की पूर्णिमा की सुहावनी संध्या का समय था। भगवान के पूर्व पांचो साथी विराजमान थे। भगवान ने धर्म का प्रकाशन किया। विपश्यना साधना का अभ्यास काराया। मध्यम मार्ग का उपदेश किया। शील, समाधि, प्रज्ञा इन आठ अंगों वाली विपश्यना-मार्ग को प्रकट किया। अर्थात् पहली बार धमचक्रप्रवर्तन हुआ। विपश्यना का अभ्यास पंचवर्गीय भिक्षुओं ने किया, उनके चित्त निर्मल हुए, वे जन्म-मरण के भवसंसरण से मुक्त हुए। विपश्यना फलवती हुई, पांचो भिक्षु अरहंत हुए।

फिर तो विपश्यना की धर्म गंगा प्रवाहित हो गयी। भगवान इसिपत्तन मृगदाववन में ध्यानरत थे। सुजाता का पुत्र यश यह कहते हुए उपद्दुतं वत भो, उपस्सट्ठं वत भोति। [1] अर्थात् हाय दुःख, हाय दुःख, हाय संताप, हाय संताप कहता भगवान के पास आ पहुंचा। भगवान को करूणा जागी, उसे विपश्यना-धर्म सिखाया, उसका दुःख दूर हुआ, संताप दूर हुआ, चित्त निर्मल हुआ, वह स्रोतापन्न हुआ। यश को खोजते हुए उसका पिता भी आ पहुंचा, भगवान ने उपदेश दिया। यश का पिता भी उपदेश सुनते-सुनते, विपश्यना करते-करते स्रोतापन्न अवस्था को प्राप्त हुआ, और यश अरहंत हुआ। भगवान ने यश के चार गृही मित्र और उनके अन्य पचास मित्रों को दुःख विमोचनी विपश्यना विद्या सिखायी। भगवान को लेकर लोक में अरहंतों की संख्या इकसठ हुई। भगवान ने उन सभी इकसठ भिक्षुओं को विपश्यना विद्या के माध्यम से विमुक्ति सुख प्रदान करने वाले धर्म के प्रचार का आदेश दिया।

पंचवर्गीय भिक्षुओं से लेकर अन्तिम भिक्षु सुभद्र तक भगवान ने 45 वर्षों तक चारिका करते हुए विपश्यना विद्या सिखायी लाखों की संख्या में लोग मुक्त हुए, विपश्यना विद्या फलवती हुई। महापरिनिर्वाण के तीन महीने बाद राजगृह में भिक्षु महाकाश्यप की अध्यक्षता में प्रथम संगायन हुआ। विपश्यना विद्या के साथ-साथ समूची बुद्धवाणी का पाठ हुआ, 500 अरहंत भिक्षुओं ने इसका अनुमोदन किया, विपश्यना विद्या सफल हुई। [2] महापरिनिर्वाण के 100 वर्षों के बाद विपश्यना और बुद्धवाणी को शुद्ध रखने के लिए राजा कालाशोक के संरक्षण में द्वितीय संगायन हुआ, इसमें 700 भिक्षुओं ने भाग लिया। [3] कलिंग युद्ध के कारण सम्राट अशोक को बहुत क्षोभ हुआ। वह भगवान की शिक्षांओं की ओर मुड़ा। वह विपश्यना साधना का अभ्यास करने के लिए राजस्थान के वैराठ पहुँचा। आचार्य उपगुप्त (मोग्गलिपुत्ततिस्स) से विपश्यना साधना सीखकर स्रोतापन्न हुआ। मोग्गलिपुत्ततिस्स की अध्यक्षता में सम्राट अशोक के संरक्षण में तीसरी धम्मसंगीति संपन्न हुई। धर्म को भिन्न-भिन्न देशों में भेजा गया। बुद्धवाणी के साथ-साथ विपश्यना भी भारत के बाहर अन्य देशों में प्रवाहित हुई। सोण और उत्तर दक्षिणी म्यांमार और पश्चिमी थाइलैंड की सुवण्णभूमि गये। उनके साथ विपश्यना भी ब्रह्मदेश पहुंची, जहां 500 वर्षों तक बुद्धवचन और विपश्यना विद्या अपने शुद्ध रूप में कायम रही। [4] 29 ई.पू. श्रीलंका में भदंत महारक्षित की अध्यक्षता में राजा वट्टगामिनी के संरक्षण में 500 तिपिटकधर भिक्षुओं द्वारा चौथा संगायन संपन्न हुआ। मूल बुद्धवाणी को ताड़पत्रों पर लिखा गया। [5]

बर्मी नरेश मिंडोमिन के संरक्षण में भदंत जागराभिवंश (फयार्गी सयाडो ), भदंत महाथेर नरिंदाभिधज (सिबानी सयाडो) और महाथेर सुमंगल सामी (मायिनवोन सयाडो) की अध्यक्षता में पांचवा संगायन आयोजित हुआ। इस संगायन में 2400 विशिष्ट विद्वान भिक्षुओं ने भाग लिया। सारी बुद्धवाणी संगमरमर की शिला-पट्टियों पर खुदवायी गयी ताकि वह चिरस्थायी रहे। बुद्धवाणी और विपश्यना साधना में पारंगत प्रकांड पंडित भिक्षु लैडी सयाडो सम्मिलित हुए। 17 मई 1954 को रंगून में बर्मा के प्रधानमंत्री ऊ नू की संरक्षणता में एवं अभिधज महारट्ठगुरू भदंत रेवत की अध्यक्षता में छठां संगायन आयोजित हुआ। इस संगायन में बुद्धानुयाई देशों और म्यंमा से 2500 विद्वान भिक्षुओं ने भाग लिया। इस संगीति का समापन सन 1956 की वैशाख पूर्णिमा के दिन भगवान बुद्ध के 2500 वर्ष पूरे होने पर हुआ।[6]

विपश्यना आचार्य अरहंत भिक्षु लेडी सयाडो- भिक्षु लेडी सयाडो पालि वांग्मय के प्रकांड विद्वान होने के साथ-साथ विपश्यना के महान आचार्य भी थे। आधुनिक युग में विपश्यना को लेकर यानी बुद्ध की शिक्षा को लेकर बहुत दूरदर्शी थे। इन्होंने भगवान बुद्ध द्वारा सिखायी गयी विपश्यना साधना की पारंपरिक प्रथा को पुनर्जीवित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। जो विपश्यना विद्या केवल भिक्षुओं तक सिमित थी उसे गृहस्थों के लिए सुलभ बना दिया। और अपने उपासक सयातै जी को जो विपश्यना में पारंगत थे, आचार्य के पद पर स्थापित किया।[7]

विपश्यना आचार्य सयातै जी– सयातै जी का जन्म एक साधारण किसान परिवार में हुआ था। बुद्ध धर्म में इनकी बड़ी रूचि होने के कारण आनापान साधना (विपश्यना का प्रारंभिक चरण) का ये निरन्तर अभ्यास करते थे। भिक्षु भदंत लेडी सयाडो से विपश्यना सीखकर सतत अभ्यास कर विपश्यना में पारंगत हुए। भगवान बुद्ध द्वारा स्थापित गृहस्थ आचार्य परम्परा को कायम रखने के लिए भिक्षु लेडी सयाडो ने इनको विपश्यना का आचार्य घोषित किया। इन्होंने गृहस्थ आचार्य के रूप में एक आदर्श भूमिका निभाई, हजार से अधिक लोगों को विपश्यना सिखायी, जिनसे केवल गुहस्थ ही नहीं बल्कि अनेक भिक्षु भी लाभान्वित हुए। इन्होंने सयाजी ऊ बा खिन को विपश्यना में पारंगत किया एवं आचार्य के पद पर नियुक्त किया। [8]

महान विपश्यना आचार्य सयाजी ऊ बा खिनआचार्य सया तै जी के पश्चात पूज्य ऊ बा खिन विपश्यना के गृहस्थ आचार्य हुए। इन्होंने केवल बर्मा के बुद्धानुयायी गृहस्थों को ही नहीं बल्कि अनेक विदेशी गृहस्थों को भी विपश्यना सिखायी। जिनमें बर्मा के रहने वाले प्रवासी भारतीय भी थे और बाहर से आने वाले अन्य गृहस्थ भी। उनकी यह प्रवल मान्यता थी कि द्वितीय बुद्धशासन का समय आरंभ होगा तब बर्मा से बुद्धवाणी और विपश्यना साधना पहले भारत जायेगी और फिर वहां से सारे विश्व में फैलेगी। सयाजी ऊ बा खिन ने अपने प्रमुख शिष्य श्री सत्यनारायण गोयन्का जी को आचार्य बनाया और उनके माध्यम से बुद्धवाणी तथा विपश्यना को भारत भेजा।[9]

विश्वविश्रुत विपश्यना आचार्य सत्यनारायण गोयन्का जी- महान विपश्यना आचार्य सयाजी ऊ बा खिन के रूप में उनके प्रतिनिधि विपश्यना आचार्य पूज्य गुरूदेव सत्यनारायण जी गोयन्का 22 जून 1969 में बर्मा से भारत आये। आचार्य श्री सत्यनारायण गोयन्का का जन्म म्यंमा के मांडले शहर में हुआ था। ……….वे गृहस्थ थे और वहां के प्रसिद्ध व्यापारी थे। 1955 में इन्होंने सयाजी ऊ बा खिन से विपश्यना का प्रथम शिविर किया और 14 वर्षों तक विधिवत विपश्यना का प्रशिक्षण प्राप्त किया। ये भगवान बुद्ध की विद्या परियत्ति और पटिपत्ति दोनों में पारंगत हुए। 1969 में सयाजी ऊ बा खिन ने इन्हें विधिवत विपश्यना आचार्य के पद पर प्रतिष्ठित किया और भारत भेजा। आचार्य सत्यनारायण जी गोयन्का विपश्यना और बुद्धवाणी भारत लेकर आये। उनके द्वारा विपश्यना विद्या भारत में प्रतिस्थापित हुई और पुरे विश्व में इसका प्रसार-प्रचार किया। उनके द्वारा दुनिया भर में 200 से ज्यादा विपश्यना ध्यान केन्द्र स्थापित किए गये। इन केन्द्रों में लगभग 60 भाषाओं में विपश्यना सिखायी जाती है। इनके द्वारा भारत की इगतपुरी नगरी में विपश्यना विशोधन विन्यास की स्थापना हुई। इस संस्था ने सम्पूर्ण पालि त्रिपिटक के 140 ग्रंथो को नागरी लिपि में प्रकाशित कर निःशुल्क बांटा और इन्हें सीडी-रोम में निवेशित कर विश्व की चौदह लिपियों में इंटरनेट पर भी प्रकाशित किया।[10]

[1]विनयपिटक, महावग्गपाळि, महाखन्धको, पब्बज्जाकथा, अनु. सं. 25, विपश्यना विशोधन विन्यास इगतपुरी।

[2]अभिधम्मपिटके, विभंगपाळि, विपश्यना विशोधन विन्यास इगतपुरी, 1998, प्रस्तावना पृ॰ सं॰ 10।

[3]अभिधम्मपिटके, विभंगपाळि, विपश्यना विशोधन विन्यास इगतपुरी, 1998, प्रस्तावना पृ॰ सं॰ 10।

[4]अभिधम्मपिटके, विभंगपाळि, विपश्यना विशोधन विन्यास इगतपुरी, 1998, प्रस्तावना पृ॰ सं॰ 10।

[5]अभिधम्मपिटके, विभंगपाळि, विपश्यना विशोधन विन्यास इगतपुरी, 1998, प्रस्तावना पृ॰ सं॰ 11।

[6]अभिधम्मपिटके, विभंगपाळि, विपश्यना विशोधन विन्यास इगतपुरी, 1998, प्रस्तावना पृ॰ सं॰ 11।

[7]The Manual of Dhamma, By Venerable Ledi Sayadaw, Vipassana Research Institute, Page N. 3-8.

[8] The Clock of Vipassana has Struck, Sayagyi U Ba Khin, Vipassana Research Institute, Page N. 75.

[9]आत्म कथन धन्य बाबा!, आचार्य सत्यनारायण गोयन्का, विपश्यना विशोधन विन्यास, धम्मगिरि, इगतपुरी, 2005, पृ॰ सं॰ 17।

[10]आत्म कथन धन्य बाबा!, आचार्य सत्यनारायण गोयन्का, विपश्यना विशोधन विन्यास, धम्मगिरि, इगतपुरी, 2005, पृ॰ सं॰ 24।