Vipassana Meditation | विपश्यना साधना
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विपश्यना साधना का उद्भव विकास एवं आचार्य परम्परा
बोधिसत्व सिद्धार्थ गौतम को छः बर्षों की कठिन तपश्यचर्या के उपरांत वैशाख पूर्णिमा की रात को बोधिवृक्ष के नीचे साधना में लीन जन्म-मृत्यु से परे लोकातीत अवस्था को खोजते-खोजते अपने ही शरीर में मन से जुड़ी हुई शारीरिक संवेदनाओं की अनुभूति होने लगी। इन संवेदनाओं को समता भाव से देखते-देखते चित्त निर्मल हुआ, विकार विहीन हुआ और आगे बढ़ते हुए इन्द्रियातीत अवस्था का दर्शन हुआ जिसे भगवान बुद्ध ने सम्यक संबोधि कहा। जिस साधना-विधि के द्वारा अर्थात् ‘देखते रहने’ के फलस्वरूप सिद्धार्थ गौतम को बुद्धत्व की प्राप्ति हुई थी, उस साधना विधि को भगवान बुद्ध ने ‘विपश्यना’ शब्द से सम्बोधित किया। अतः इस प्रकार से विपश्यना साधना का उद्भव हुआ। इस प्रकार हम कह सकते है कि बुद्धत्व प्राप्ति और विपश्यना का उद्भव साथ-साथ हुआ।
विपश्यना के द्वारा वे बुद्ध बने तो सारा मन करूणा से भर गया। लोक कल्याण की भावना से ओत-प्रोत हो गये। विपश्यना, संबोधि प्राप्त करने की एक नैसर्गिक विधि है। इसलिए यह धर्म-गंगा बिना बहे नहीं रूक सकती थी। मानव कल्याण हेतु इसका प्रसार होना ही था। आषाढ़ मास की पूर्णिमा की सुहावनी संध्या का समय था। भगवान के पूर्व पांचो साथी विराजमान थे। भगवान ने धर्म का प्रकाशन किया। विपश्यना साधना का अभ्यास काराया। मध्यम मार्ग का उपदेश किया। शील, समाधि, प्रज्ञा इन आठ अंगों वाली विपश्यना-मार्ग को प्रकट किया। अर्थात् पहली बार धमचक्रप्रवर्तन हुआ। विपश्यना का अभ्यास पंचवर्गीय भिक्षुओं ने किया, उनके चित्त निर्मल हुए, वे जन्म-मरण के भवसंसरण से मुक्त हुए। विपश्यना फलवती हुई, पांचो भिक्षु अरहंत हुए।
फिर तो विपश्यना की धर्म गंगा प्रवाहित हो गयी। भगवान इसिपत्तन मृगदाववन में ध्यानरत थे। सुजाता का पुत्र यश यह कहते हुए ‘उपद्दुतं वत भो, उपस्सट्ठं वत भो’ति। [1] अर्थात् हाय दुःख, हाय दुःख, हाय संताप, हाय संताप कहता भगवान के पास आ पहुंचा। भगवान को करूणा जागी, उसे विपश्यना-धर्म सिखाया, उसका दुःख दूर हुआ, संताप दूर हुआ, चित्त निर्मल हुआ, वह स्रोतापन्न हुआ। यश को खोजते हुए उसका पिता भी आ पहुंचा, भगवान ने उपदेश दिया। यश का पिता भी उपदेश सुनते-सुनते, विपश्यना करते-करते स्रोतापन्न अवस्था को प्राप्त हुआ, और यश अरहंत हुआ। भगवान ने यश के चार गृही मित्र और उनके अन्य पचास मित्रों को दुःख विमोचनी विपश्यना विद्या सिखायी। भगवान को लेकर लोक में अरहंतों की संख्या इकसठ हुई। भगवान ने उन सभी इकसठ भिक्षुओं को विपश्यना विद्या के माध्यम से विमुक्ति सुख प्रदान करने वाले धर्म के प्रचार का आदेश दिया।
पंचवर्गीय भिक्षुओं से लेकर अन्तिम भिक्षु सुभद्र तक भगवान ने 45 वर्षों तक चारिका करते हुए विपश्यना विद्या सिखायी लाखों की संख्या में लोग मुक्त हुए, विपश्यना विद्या फलवती हुई। महापरिनिर्वाण के तीन महीने बाद राजगृह में भिक्षु महाकाश्यप की अध्यक्षता में प्रथम संगायन हुआ। विपश्यना विद्या के साथ-साथ समूची बुद्धवाणी का पाठ हुआ, 500 अरहंत भिक्षुओं ने इसका अनुमोदन किया, विपश्यना विद्या सफल हुई। [2] महापरिनिर्वाण के 100 वर्षों के बाद विपश्यना और बुद्धवाणी को शुद्ध रखने के लिए राजा कालाशोक के संरक्षण में द्वितीय संगायन हुआ, इसमें 700 भिक्षुओं ने भाग लिया। [3] कलिंग युद्ध के कारण सम्राट अशोक को बहुत क्षोभ हुआ। वह भगवान की शिक्षांओं की ओर मुड़ा। वह विपश्यना साधना का अभ्यास करने के लिए राजस्थान के वैराठ पहुँचा। आचार्य उपगुप्त (मोग्गलिपुत्ततिस्स) से विपश्यना साधना सीखकर स्रोतापन्न हुआ। मोग्गलिपुत्ततिस्स की अध्यक्षता में सम्राट अशोक के संरक्षण में तीसरी धम्मसंगीति संपन्न हुई। धर्म को भिन्न-भिन्न देशों में भेजा गया। बुद्धवाणी के साथ-साथ विपश्यना भी भारत के बाहर अन्य देशों में प्रवाहित हुई। सोण और उत्तर दक्षिणी म्यांमार और पश्चिमी थाइलैंड की सुवण्णभूमि गये। उनके साथ विपश्यना भी ब्रह्मदेश पहुंची, जहां 500 वर्षों तक बुद्धवचन और विपश्यना विद्या अपने शुद्ध रूप में कायम रही। [4] 29 ई.पू. श्रीलंका में भदंत महारक्षित की अध्यक्षता में राजा वट्टगामिनी के संरक्षण में 500 तिपिटकधर भिक्षुओं द्वारा चौथा संगायन संपन्न हुआ। मूल बुद्धवाणी को ताड़पत्रों पर लिखा गया। [5]
बर्मी नरेश मिंडोमिन के संरक्षण में भदंत जागराभिवंश (फयार्गी सयाडो ), भदंत महाथेर नरिंदाभिधज (सिबानी सयाडो) और महाथेर सुमंगल सामी (मायिनवोन सयाडो) की अध्यक्षता में पांचवा संगायन आयोजित हुआ। इस संगायन में 2400 विशिष्ट विद्वान भिक्षुओं ने भाग लिया। सारी बुद्धवाणी संगमरमर की शिला-पट्टियों पर खुदवायी गयी ताकि वह चिरस्थायी रहे। बुद्धवाणी और विपश्यना साधना में पारंगत प्रकांड पंडित भिक्षु लैडी सयाडो सम्मिलित हुए। 17 मई 1954 को रंगून में बर्मा के प्रधानमंत्री ऊ नू की संरक्षणता में एवं अभिधज महारट्ठगुरू भदंत रेवत की अध्यक्षता में छठां संगायन आयोजित हुआ। इस संगायन में बुद्धानुयाई देशों और म्यंमा से 2500 विद्वान भिक्षुओं ने भाग लिया। इस संगीति का समापन सन 1956 की वैशाख पूर्णिमा के दिन भगवान बुद्ध के 2500 वर्ष पूरे होने पर हुआ।[6]
विपश्यना आचार्य अरहंत भिक्षु लेडी सयाडो- भिक्षु लेडी सयाडो पालि वांग्मय के प्रकांड विद्वान होने के साथ-साथ विपश्यना के महान आचार्य भी थे। आधुनिक युग में विपश्यना को लेकर यानी बुद्ध की शिक्षा को लेकर बहुत दूरदर्शी थे। इन्होंने भगवान बुद्ध द्वारा सिखायी गयी विपश्यना साधना की पारंपरिक प्रथा को पुनर्जीवित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। जो विपश्यना विद्या केवल भिक्षुओं तक सिमित थी उसे गृहस्थों के लिए सुलभ बना दिया। और अपने उपासक सयातै जी को जो विपश्यना में पारंगत थे, आचार्य के पद पर स्थापित किया।[7]
विपश्यना आचार्य सयातै जी– सयातै जी का जन्म एक साधारण किसान परिवार में हुआ था। बुद्ध धर्म में इनकी बड़ी रूचि होने के कारण आनापान साधना (विपश्यना का प्रारंभिक चरण) का ये निरन्तर अभ्यास करते थे। भिक्षु भदंत लेडी सयाडो से विपश्यना सीखकर सतत अभ्यास कर विपश्यना में पारंगत हुए। भगवान बुद्ध द्वारा स्थापित गृहस्थ आचार्य परम्परा को कायम रखने के लिए भिक्षु लेडी सयाडो ने इनको विपश्यना का आचार्य घोषित किया। इन्होंने गृहस्थ आचार्य के रूप में एक आदर्श भूमिका निभाई, हजार से अधिक लोगों को विपश्यना सिखायी, जिनसे केवल गुहस्थ ही नहीं बल्कि अनेक भिक्षु भी लाभान्वित हुए। इन्होंने सयाजी ऊ बा खिन को विपश्यना में पारंगत किया एवं आचार्य के पद पर नियुक्त किया। [8]
महान विपश्यना आचार्य सयाजी ऊ बा खिन– आचार्य सया तै जी के पश्चात पूज्य ऊ बा खिन विपश्यना के गृहस्थ आचार्य हुए। इन्होंने केवल बर्मा के बुद्धानुयायी गृहस्थों को ही नहीं बल्कि अनेक विदेशी गृहस्थों को भी विपश्यना सिखायी। जिनमें बर्मा के रहने वाले प्रवासी भारतीय भी थे और बाहर से आने वाले अन्य गृहस्थ भी। उनकी यह प्रवल मान्यता थी कि द्वितीय बुद्धशासन का समय आरंभ होगा तब बर्मा से बुद्धवाणी और विपश्यना साधना पहले भारत जायेगी और फिर वहां से सारे विश्व में फैलेगी। सयाजी ऊ बा खिन ने अपने प्रमुख शिष्य श्री सत्यनारायण गोयन्का जी को आचार्य बनाया और उनके माध्यम से बुद्धवाणी तथा विपश्यना को भारत भेजा।[9]
विश्वविश्रुत विपश्यना आचार्य सत्यनारायण गोयन्का जी- महान विपश्यना आचार्य सयाजी ऊ बा खिन के रूप में उनके प्रतिनिधि विपश्यना आचार्य पूज्य गुरूदेव सत्यनारायण जी गोयन्का 22 जून 1969 में बर्मा से भारत आये। आचार्य श्री सत्यनारायण गोयन्का का जन्म म्यंमा के मांडले शहर में हुआ था। ……….वे गृहस्थ थे और वहां के प्रसिद्ध व्यापारी थे। 1955 में इन्होंने सयाजी ऊ बा खिन से विपश्यना का प्रथम शिविर किया और 14 वर्षों तक विधिवत विपश्यना का प्रशिक्षण प्राप्त किया। ये भगवान बुद्ध की विद्या परियत्ति और पटिपत्ति दोनों में पारंगत हुए। 1969 में सयाजी ऊ बा खिन ने इन्हें विधिवत विपश्यना आचार्य के पद पर प्रतिष्ठित किया और भारत भेजा। आचार्य सत्यनारायण जी गोयन्का विपश्यना और बुद्धवाणी भारत लेकर आये। उनके द्वारा विपश्यना विद्या भारत में प्रतिस्थापित हुई और पुरे विश्व में इसका प्रसार-प्रचार किया। उनके द्वारा दुनिया भर में 200 से ज्यादा विपश्यना ध्यान केन्द्र स्थापित किए गये। इन केन्द्रों में लगभग 60 भाषाओं में विपश्यना सिखायी जाती है। इनके द्वारा भारत की इगतपुरी नगरी में विपश्यना विशोधन विन्यास की स्थापना हुई। इस संस्था ने सम्पूर्ण पालि त्रिपिटक के 140 ग्रंथो को नागरी लिपि में प्रकाशित कर निःशुल्क बांटा और इन्हें सीडी-रोम में निवेशित कर विश्व की चौदह लिपियों में इंटरनेट पर भी प्रकाशित किया।[10]
[1]विनयपिटक, महावग्गपाळि, महाखन्धको, पब्बज्जाकथा, अनु. सं. 25, विपश्यना विशोधन विन्यास इगतपुरी।
[2]अभिधम्मपिटके, विभंगपाळि, विपश्यना विशोधन विन्यास इगतपुरी, 1998, प्रस्तावना पृ॰ सं॰ 10।
[3]अभिधम्मपिटके, विभंगपाळि, विपश्यना विशोधन विन्यास इगतपुरी, 1998, प्रस्तावना पृ॰ सं॰ 10।
[4]अभिधम्मपिटके, विभंगपाळि, विपश्यना विशोधन विन्यास इगतपुरी, 1998, प्रस्तावना पृ॰ सं॰ 10।
[5]अभिधम्मपिटके, विभंगपाळि, विपश्यना विशोधन विन्यास इगतपुरी, 1998, प्रस्तावना पृ॰ सं॰ 11।
[6]अभिधम्मपिटके, विभंगपाळि, विपश्यना विशोधन विन्यास इगतपुरी, 1998, प्रस्तावना पृ॰ सं॰ 11।
[7]The Manual of Dhamma, By Venerable Ledi Sayadaw, Vipassana Research Institute, Page N. 3-8.
[8] The Clock of Vipassana has Struck, Sayagyi U Ba Khin, Vipassana Research Institute, Page N. 75.
[9]आत्म कथन धन्य बाबा!, आचार्य सत्यनारायण गोयन्का, विपश्यना विशोधन विन्यास, धम्मगिरि, इगतपुरी, 2005, पृ॰ सं॰ 17।
[10]आत्म कथन धन्य बाबा!, आचार्य सत्यनारायण गोयन्का, विपश्यना विशोधन विन्यास, धम्मगिरि, इगतपुरी, 2005, पृ॰ सं॰ 24।