बुद्धदत्त की जीवनी और रचनाएँ
बुद्धदत्त की जीवनी — आचार्य बुद्धदत्त पाँचवी शताब्दी में दक्षिणी भारत के चोल राज्य में उरगपुर के निवासी थे। इनके प्रारंभिक जीवन, शिक्षा और आचार्य परम्परा के बारे में अधिक जानकारी उपलब्ध नही है। इन्होंने लंका के अनुराधपुर स्तिथ महाविहार में जाकर भगवान बुद्ध के शासन-सम्बन्धी उच्च शिक्षा प्राप्त की थी। ये आचार्य बुद्धघोष के समकालीन थे
बुद्धदत्त की जीवनी और रचनाएँ – भूमिका — महाकरूणीक तथागत भगवान गौतम बुद्ध के महापरिनिर्वाण के पश्चात् लगभग चौथी-पाँचवीं शताब्दी में मागधी भाषा में पालि-साहित्य की अट्ठकथा का लेखन कार्य प्रारम्भ हुआ। इस युग में बुद्धदत्त, बुद्धघोष और धम्मपाल तीन बड़े अट्ठकथाकार हुए। इस लेख में हम बुद्धदत्त की जीवनी और उनकी रचनाओं का उल्लेख करेगें।
बुद्धदत्त की जीवनी — आचार्य बुद्धदत्त पाँचवी शताब्दी में दक्षिणी भारत के चोल राज्य में उरगपुर के निवासी थे। इनके प्रारंभिक जीवन, शिक्षा और आचार्य परम्परा के बारे में अधिक जानकारी उपलब्ध नही है। इन्होंने लंका के अनुराधपुर स्तिथ महाविहार में जाकर भगवान बुद्ध के शासन-सम्बन्धी उच्च शिक्षा प्राप्त की थी। ये आचार्य बुद्धघोष के समकालीन थे।[i] बुद्धघोससुप्पत्ति[ii] के अनुसार आचार्य बुद्धदत्त, बुद्धघोस से पहले लंका में बुद्ध-वचनों के अध्ययनार्थ गये थे। और वही पर रहकर इन्होंने जिनालंकार, दन्तधातु और बोधिवंस को लिखा था। जब आचार्य बुद्धघोस बुद्धवचन को सिहंली से मागधी भाषा में रूपान्तर हेतु सिहंल दीव्प जा रहे थे, उसी समय आचार्य बुद्धदत्त सिहंल दीव्प से भारत आने के लिए प्रस्थान किया था। दोनों थेरों की नौकाएं आमने-सामने मिली। बुद्धदत्त ने बुद्धघोस को देखकर पूछा कि तुम्हारा क्या नाम है? और कहाँ जा रहे हो? तब आचार्य बुद्धघोस ने उनसे कहा मेरा नाम बुद्धघोष है, और जो ‘‘बुद्ध-उपदेश सिहंली भाषा में है। मैं उनका मागधी भाषा में रूपान्तर करने लंका जा रहा हूँ।’’ तब बुद्धदत्त ने उनसे कहा, ‘‘आवुस बुद्धघोस! मैं तुमसे पूर्व इस लंका दीव्प में बुद्ध-वचन को सिहंली भाषा से मागधी भाषा में रूपान्तरित करने के उद्देश्य से आया था। किन्तु मेरी आयु थोड़ी बची है, मैं अब अधिक नही जीऊँगा और इस काम को पूरा नहीं कर सकूँगा। तुम्ही साधु रूप से इस काम को पूरा करो। इस प्रकार आचार्य बुद्धदत्त लंका से लौटकर कावेरी नदी के तट पर निर्मित विहार में बैठकर पालि-अट्ठाकथाओं का लेखन कार्य किया। चूलगन्धवंस के गन्थकारकाचरिय-परिच्छेदो में आया है कि – ‘बुद्धदत्तोनामाचरियो विनयविनिच्छयो, उत्तरविनिच्छयो, अभिधम्मावतारो, बुद्धवंसस्स मधुरत्थविलासिनी नाम अट्ठकथाति, इमे चत्तारो गन्थे अकासि।[iii] अर्थात आचार्य बुद्धदत्त ने विनयविनिच्छय, उत्तरविनिच्छय, अभिधम्माअवतर और जो बुद्धवंस की मधुरत्थविलासिनी नामक अट्ठाकथा है, इन्ही चार ग्रन्थों की रचना किया। इसी ग्रन्थ के ‘आचरियानं सञ्जातट्ठानपरिछेदो’ में इस बात का जिक्र है कि जो तेईस आचार्य जम्बुदीप से श्रीलंका गये, उनमें आचार्य बुद्धदत्त का नाम प्रथम है। इसी ग्रन्थ के ‘बुद्धदत्ताचरिय-गन्थदीपना’ में आया है कि – ‘बुद्धत्ताचरिय गन्थेसु पन विनय-विनिच्छयगन्थो अत्तनो सिस्सेन बुद्धसीहेन नाम थेरेन आयाचितेन बुद्धत्ताचरिया कतो। उत्तर-विनिच्छयगन्थो सङ्घपालेन नामेन थेरेन आयाचितेन बुद्धदत्ताचरियेन कतो। अभिधम्मावतारो नाम गन्थो अत्तनो सिस्सेन सुमति थेरेन आयाचितेन बुद्धदत्ताचरियेन कतो। बुद्धवंसस्स अट्ठकथा गन्थो तेनेव बुद्धसीहनाम थेरेन आयाचितेन बुद्धदत्ताचरियेन कतो।’[iv] अर्थात आचार्य बुद्धदत्त ने अपने ग्रन्थ विनय-विनिच्छय की रचना अपने शिष्य बुद्धसीह थेर की याचना पर किया। उत्तर-विनिच्छय की रचना सङ्पाल थेर की याचना पर किया। अभिधम्मावतारो की रचना अपने शिष्य सुमति थेर की याचना पर किया और बुद्धवंस की अट्ठकथा की रचना बुद्धसीह थेर की याचना पर किया। सद्धम्मसङ्गहो के सब्बप्पकरणकतथेरवण्णना में कहा गया कि –‘‘थेरेन बुद्धदत्तेन, रचितं यं मनोरमां। अभिधम्मावतारोति, लद्धनामेन विस्सुतं।।’[v] अर्थात बुद्धदत्त थेर द्वारा रचित ग्रन्थ अभिधम्मावतार के नाम से प्रतिद्ध हुआ। सासनवंस नामक ग्रन्थ के अनुसार पालि-साहित्य के अट्ठकथाकार आचार्य बुद्धदत्त ने जिनालंकार नामक ग्रन्थ की रचना की है। वे बुद्धघोष को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि- ‘मया आवुसो कतो जिनालंकारो अप्पसारो’ति।[vi] अर्थात आयुष्मान्! मैंने जिनालंकार नामक ग्रन्थ लिखा है, जो अल्पसार है। इस प्रकार आचार्य बुद्धदत्त जीवनपर्यंत बुद्ध शासन की सेवा कर, मरने के बाद तुषित-भवन में उत्पन्न हुए।
रचनाएँ — बुद्धदत्त द्वारा रचित अट्ठकथाएँ इस प्रकार हैं — 1. विनयविनिच्छय, 2. उत्तरविनिच्छय, 3. अभिधम्मावतार, 4. मधुरत्थविलासिनी।[vii]
- विनयविनिच्छय — इस ग्रन्थ में कुल 31 अध्याय हैं जिनके अन्तर्गत 3183 गाथाएँ हैं। पहले भिक्खु-विभंग के अन्तर्गत पाराजिक-कथा, संघादिसेस-कथा, अनियत-कथा, निस्सग्गिय-पाचित्तिय-कथा, पटिदेसनिय-कथा तथा सेखिय-कथा का विवरण है। इसी प्रकार भिक्खुनी-विभंग के अन्तर्गत पारजिक-कथा, संघादिसेस-कथा, निस्सग्गिय-पाचित्तिय-कथा, और पटिदेसनिय-कथा का विवेचन है।
- उत्तरविनिच्छय — इस ग्रन्थ में कुल 23 अध्याय हैं जिनके अन्तर्गत 969 गाथाएँ हैं। पहले भिक्खु-विभंग के अन्तर्गत पाराजिक-कथा, संघादिसेस-कथा, निस्सग्गिय-कथा, पाचित्तिय-कथा, पटिदेसनीय-कथा, सेखिय-कथा। इसी प्रकार भिक्खुनी-विभंग के अन्तर्गत पाराजिक-कथा, संघादिसेस-कथा, निस्सग्गिय-कथा, पाचित्तिय-कथा और पटिदेसनिय-कथा का विवेचन है। इस के अतिरिक्त चतुविपत्ति-कथा, अधिकरणच्चय-कथा, खन्धकपुच्छा-कथा, समुट्ठानसीस-कथा आदि का विवरण है।
- अभिधम्मावतार — अभिधम्मावतार गद्य-पद्य मिश्रित रचना है। इस ग्रन्थ में कुल 24 परिच्छेद हैं। प्रथम परिच्छेद में चित्त की गणना किया गया हैं। दुसरे परिच्छेद के चैतसिक निर्देश में 52 प्रकार के चैतसिको का जिक्र है। तीसरा परिच्छेद चैतसिक-विभाग-निर्देश है जिसके अन्तर्गत पद्य शैली में 52 प्रकार के चैतसिको का परिगणना किया गया है। चौथा परिच्छेद एकविधादि-निर्देश है। इसी प्रकार इस ग्रन्थ के अन्य परिच्छेदो में चित्त, चैतसिक, रूप और निर्वाण इन चारों का वर्गीकरण किया गया है।
5. मधुरत्थविलासिनी — मधुरत्थविलासिनी बुद्धवसं की अट्ठकथा है। बुद्धदत्त महाथेरा ने मधुत्थविलासिनी की निदानवण्णना में बुद्धवंस सम्बन्धी कई महत्त्वपूर्ण प्रश्न किये हैं और उनके उत्तर दिये हैं। सबसे पहले उन्होंने प्रश्न उठाया है कि बुद्धवंस का उपदेश किसने दिया है? अयं बुद्धवंसो केन देसितो? इस उत्तर में उन्होंने कहा है कि — ‘सब्बधम्मेसु अप्पटिहञाणचारेन दसबलेन चतुवेसारज्जविसारदेन धम्मराजेन धम्मस्सामिना तथागतेन सब्बञ्ञुना सम्मासम्बुद्धेन देसितो।[viii] अर्थात् सभी धर्मों में अप्रतिम ज्ञान रखने वाले, दस बल प्राप्त, चारों वैशारद्य से विशारद धर्मराजा धर्मस्वामी तथागत सर्वज्ञ सम्यक् सम्बुद्ध के द्वारा दिया गया। अगला प्रश्न कत्थ देसितोति? अर्थात् कहाँ दिया गया, इसके उत्तर में उन्होंने कहा है कि —‘कपिलवत्थुमहानगरे निग्रोधाराममहाविहारे परमरूचिरसन्दस्सने देवमनुस्सनयननिपाभूते रतनचङ्कमे चङ्कमन्तेन देसितो। इसी प्रकार इस ग्रन्थ में सभी बुद्धों की तीस प्रकार की धर्मता का वर्णन किया गया है।
[i] पालि भाषा और साहित्य, इन्द्र चंद्र शास्त्री, हिंदी माध्यम कार्यान्वय निदेशालय दिल्ली विश्वविद्यालयष
[ii] बुद्धघोसुप्पत्ति, संपादक एवं अनुवादक डॉ.राजेश रंजन, सम्यक प्रकाशन नई दिल्ली।
[iii] चूलगन्धवंस, गन्थकारकाचरिय-परिच्छेदो, विपश्यना विशोधन विन्यास, धम्मगिरि, इगतपुरी।
[iv] चूलगन्धवंस, बुद्धदत्ताचरिय-गन्थदीपना , विपश्यना विशोधन विन्यास, धम्मगिरि, इगतपुरी।
[v] सद्धम्मसङ्गहो, सब्बप्पकरणकतथेरवण्णना, विपश्यना विशोधन विन्यास, धम्मगिरि, इगतपुरी।
[vi] जिनालंकार, , विपश्यना विशोधन विन्यास, धम्मगिरि, इगतपुरी।
[vii] पालि-साहित्य का इतिहास, डां. भरतसिंह उपाध्याय, हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग
[viii] बुद्धवंस-अट्ठकथा, मधुरत्थविलासिनी, विपश्यना विशोधन विन्यास, धम्मगिरि, इगतपुरी।