आचार्य अनुरुद्ध का व्यक्तित्व एवं कृतित्व

भूमिका —  सेट्ठे कञ्‍चिवरे रट्ठे, कावेरिनगरे वरे।
                            कुले सञ्‍जातभूतेन, बहुस्सुतेन ञाणिना॥

परमत्थविनिच्छय के इस गाथा से ज्ञात होता है कि आचार्य अनुरुद्ध का जन्म दक्षिण भारत में स्थित, श्रेष्ठ कांचीवर राज्य के उत्कृष्ट कावेरी नगर में एक उत्तम कुल में  हुआ था। ये अत्यधिक विद्वान और ज्ञान से संपन्न थे। इनके बारे मे कहा गया है कि ‘अनुरुद्धेन थेरेन, अनिरुद्धयसस्सिना। तम्बरट्ठे वसन्तेन, नगरे तञ्‍जनामके॥’ अर्थात् अनुरुद्ध एक सम्मानित भिक्षु थे, उनकी प्रसिद्धि की तुलना अनिरुद्ध से की गई है, जो कि भगवान बुद्ध के प्रधान शिष्यों में से एक थे। श्रीलंका या दक्षिण भारत में तंज नामक कोई नगर रहा होगा जहां आचार्य अनुरुद्ध निवास करते थे। तंज संभवत: तंजावुर हो सकता है, जो इस समय दक्षिण भारत में है। अथवा श्रीलंका का कोई नगर रहा होगा। जिसमें रहते हुए किसी वरिष्ठ भिक्षु के अनुरोध पर महाविहार के विद्वान भिक्षुओं के अध्ययन एवं पाठ के लिए परमत्थविनिच्छय नामक ग्रन्थ की रचना किया। आचार्य अनुरुद्ध ने महाविहार परंपरा से जुड़कर अभिधम्म अध्ययन का विस्तार किया। उनके समय में महाविहार बौद्ध शिक्षा का एक प्रमुख केंद्र था, और उन्होंने इसी परंपरा में रहकर अनेक ग्रंथों की रचना की।

आचार्य अनुरुद्ध को विशेष रूप से ‘अभिधम्मत्थसंगहो’  की रचना के लिए जाना जाता है। उन्होंने श्रीलंका के महाविहार में रहकर अभिधम्म की शिक्षा दी और इसके प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनके ग्रंथों ने न केवल श्रीलंका, बल्कि पूरे दक्षिण एवं दक्षिण-पूर्व एशिया में अभिधम्म के अध्ययन को लोकप्रिय बनाया। जो आज भी बौद्ध विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में अभिधम्म अध्ययन के लिए आधारभूत ग्रंथ मानी जाती हैं। आचार्य अनुरुद्ध ने बताया कि मन क्षणभंगुर होता है और निरंतर परिवर्तनशील रहता है। चित्त और चेतसिक के संयोग से व्यक्ति का नैतिक आचरण बनता है, जिसे अभिधम्म के सिद्धांतों से समझा जा सकता है। उन्होंने ध्यान साधना को बौद्ध तत्त्वज्ञान से जोड़कर समझाने का प्रयास किया है। उनके ग्रंथों में यह स्पष्ट किया गया है कि किस प्रकार ध्यान और सतिपठ्ठान से व्यक्ति निर्वाण की ओर बढ़ सकता है। उन्होंने पञ्चखन्ध और चार आर्यसत्य के परिप्रेक्ष्य में ध्यान प्रक्रिया को विस्तार से समझाया है।

बुद्धदत्त, बुद्धघोष और धम्मपाल की रचनाओं के बाद आचार्य अनुरुद्ध के ग्रन्थ ‘अभिधम्मत्थसङ्गहो’ का पालि साहित्य में विशेष स्थान है। अभिधम्मपिटक के समस्त विषयवस्तु इसमें संक्षेप और सरलता के साथ प्रस्तुत किए गए हैं। इसी कारण, बुद्धघोष जैसे आचार्यों की अट्ठकथाओं के उपलब्ध होने के बावजूद, सभी बौद्ध देशों में अभिधम्म अध्ययन प्रायः इसी ग्रंथ से प्रारंभ किया जाता है। आचार्य अनुरुद्ध के काल को लेकर विद्वानों के बीच विभिन्न मत प्रचलित हैं। कुछ विद्वान आचार्य अनुरुद्ध को 8वीं, कुछ 10वीं, और कुछ 12वीं शताब्दी का मानते हैं, जबकि अन्य उन्हें आचार्य बुद्धघोष और आचार्य धर्मपाल के बीच का विद्वान स्वीकार करते हैं। अधिकांश सम्प्रदायिक विचारक उन्हें बुद्धवंस-अट्ठकथा, विनयविनिच्छय, और अभिधम्मावतार जैसे ग्रंथों के रचयिता आचार्य बुद्धदत्त का गुरुभाई मानते हैं। यदि यह मत सही है, तो आचार्य बुद्धदत्त का समय पहले से निर्धारित होने के कारण, आचार्य अनुरुद्ध के काल का निर्धारण भी सहज हो सकता है।

आचार्य अनुरुद्ध बौद्ध अभिधम्म परंपरा के एक प्रमुख विद्वान थे। उन्होंने विशेष रूप से अभिधम्म के गूढ़ तत्वों को सरल और व्यवस्थित रूप में प्रस्तुत करने के लिए कई महत्वपूर्ण ग्रंथों की रचना की। उनका पहला ग्रन्थ परमत्थविनिच्छय है, जिसके विषय में कहा गया है कि ‘परमत्थविनिच्छयं नाम गन्थो सङ्घरक्खितेन थेरेन आयाचितेन अनुरुद्धाचारियेन कतो।’ अर्थात् परमत्थविनिच्छय नामक ग्रंथ को संघरक्खित थेर के अनुरोध पर आचार्य अनुरुद्ध ने लिखा। यह ग्रन्थ चार परमार्थ धर्मों का विश्लेषण करता है। जिसमें अभिधम्म की गूढ़ शिक्षाओं की व्याख्या किया गया है। इसके अन्तर्गत चित्त, चेतसिक, रूप और निब्बान की गहन व्याख्या प्रस्तुत किया गया है। यह ग्रन्थ बौद्ध साधकों के लिए एक मार्गदर्शक की भूमिका निभाने के साथ-साथ न केवल अभिधम्म दर्शन की समझ विकसित करता है, बल्कि इसे व्यावहारिक ध्यान और मोक्ष के मार्ग से भी जोड़ता है।

अभिधम्मत्थसंगहो का परिचय

आचार्य अनुरुद्ध द्वारा रचित तीसरा ग्रन्थ अभिधम्मत्थसंगहो है। इस ग्रन्थ के गन्थारम्भकथा में आचार्य अनुरुद्ध कहते हैं कि ‘सम्मासम्बुद्धमतुलं , ससद्धम्मगणुत्तमं। अभिवादिय भासिस्सं, अभिधम्मत्थसङ्गहं॥’ अर्थात् मैं उस अतुलनीय सम्मासम्बुद्ध को, जो सद्धम्म तथा उत्तम संघ सहित हैं, उन्हें अभिवादन करके, अभिधम्म के अर्थों का संग्रह प्रस्तुत करूँगा।’ आचार्य ने इस ग्रन्थ में चार परमार्थ धर्मों का वर्णन करते हुए कहा है कि ‘ तत्थ वुत्ताभिधम्मत्था, चतुधा परमत्थतो। चित्तं चेतसिकं रूपं, निब्बानमिति सब्बथा।। अर्थात् यहां अभिधर्म के अर्थ में चार परमार्थ कहे गये हैं, जो चित्त, चेतसिक, रूप और निर्वाण के रूप में जाने जाते हैं।

चार परमार्थ

वर्गपरिभाषाप्रकारलक्षणस्वरूपउदाहरण
चित्त चित्त वह तत्व है जो अनुभव करता है, यानी चेतनाकुल 89 प्रकारकिसी वस्तु को ग्रहण करने, पहचानने व अनुभव करने की क्षमतायह अनित्य है, हर क्षण उत्पन्न होकर समाप्त होता है।चक्खु विज्ञान आदि
चेतसिक वे मानसिक कारक जो चित्त के साथ उत्पन्न होते हैं और उसे प्रभावित करते हैं।52 प्रकारचित्त की स्थिति और प्रकृति को नियंत्रित करते हैं।यह चित्त के बिना नहीं होता, बल्कि चित्त के साथ सह-उत्पन्न होता है।वेदना, संज्ञा, एकाग्रता  आदि।
रूप भौतिक तत्व जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से विद्यमान होते हैं।कुल 28 प्रकार चित्त व चेतसिक के विपरीत यह ठोस तत्व है।यह परिवर्तनशील है, लेकिन चित्त और चेतसिक से अधिक स्थायी होता है।पृथ्वी धातु, जल धातु, तेजो धातु आदि।
निब्बानसमस्त क्लेशों और दुखों से मुक्ति की परम अवस्था।यह सङ्खात तत्व है, इसका कोई भेद नहीं।यह जन्म-मरण चक्र (संसार) का अंत है।यह स्थायी है, परिवर्तनरहित है, लेकिन वर्णनातीत है।अर्हत अवस्था प्राप्त होने पर अनुभव किया जाने वाला परम शांति।

यह ग्रंथ अभिधम्मपिटक के जटिल विषयों का सार प्रस्तुत करता है और अभिधम्म दर्शन की मूलभूत समझ प्रदान करता है। आचार्य अनुरुद्ध ने इस ग्रंथ में अभिधम्म के मूल तत्वों को सरल, संक्षिप्त और व्यवस्थित रूप में प्रस्तुत किया, ताकि विद्यार्थी और साधक इसे आसानी से समझ सकें। अभिधम्मत्थसङ्गहो के विषय में कहा गया है कि अभिधम्मत्थसङ्गहं नाम गन्थो नम्म नामेन उपासकेन आयाचितेन अनुरुद्धाचारियेन कतो। अर्थात् अभिधम्मत्थसङ्गहो नामक ग्रंथ नम्म नामक उपासक के अनुरोध पर आचार्य अनुरुद्ध ने लिखा। आचार्य अनुरुद्ध कहते है कि चारित्तसोभितविसालकुलोदयेन, सद्धाभिवुड्ढपरिसुद्धगुणोदयेन। नम्पव्हयेन पणिधाय परानुकम्पं, यं पत्थितं पकरणं परिनिट्ठितं तं॥ उत्तम आचरण से सुशोभित और महान कुल में जन्म लेने के कारण, बढ़ी हुई श्रद्धा और शुद्ध गुणों के उदय के कारण, बुद्ध-धम्म-संघ के प्रति अपार श्रद्धा रखते हुए, दूसरों के प्रति करुणा का संकल्प करके जिस ग्रंथ की इच्छा की गई थी, वह पूर्ण रूप से संकलित कर दिया गया। उस महान पुण्य के प्रभाव से, जो शीतल और कल्याणकारी मूल (धम्म) से उत्पन्न हुआ है, जो धान्य और पुण्य से समृद्ध, आनंदमय और आयु को उज्ज्वल बनाने वाला है, प्रज्ञा से शुद्ध, उत्तम गुणों से शोभित और लज्जाशील भिक्षु इस ग्रंथ को पुण्य और समृद्धि के उदय के लिए मंगलकारी मानें। अभिधम्मत्थसंगहो अभिधम्म दर्शन की गूढ़ता को सरल रूप में प्रस्तुत करने वाला एक अनूठा ग्रंथ है। यह श्रीलंका, बर्मा, थाईलैंड और अन्य बौद्ध देशों में अभिधम्म अध्ययन के लिए आधारभूत ग्रंथ माना जाता है। इसके माध्यम से बौद्ध दर्शन, मनोविज्ञान, कर्म सिद्धांत, और निर्वाण मार्ग को सहज रूप से समझाया गया है। अभिधम्मत्थसंगहो के इन नौ परिच्छेदों में चित्त, चेतसिक, रूप, कारण-परिणाम संबंध और ध्यान साधना के विषयों को क्रमबद्ध और सुगठित रूप में प्रस्तुत किया गया है

    1. चित्त परिच्छेद – इसमें चित्त के भेदों का वर्णन किया गया है। चित्त को उसके गुणों, प्रकारों, और मानसिक अवस्थाओं के आधार पर विभाजित किया गया है। यह परिच्छेद बताता है कि चित्त कैसे उत्पन्न होता है और उसके विभिन्न कार्य क्या हैं।
    2. चेतसिक परिच्छेद – इसमें चैतसिक का वर्णन किया गया है। चेतसिक वे मानसिक गुण हैं जो चित्त के साथ उत्पन्न होते हैं। यह परिच्छेद 52 चैतसिकों को उनके कार्यों और विशेषताओं के साथ विस्तृत रूप में समझाता है।
    3. पकिण्णक परिच्छेद – इसमें विविध मानसिक और नैतिक तत्वों की चर्चा की गई है, जैसे – जीवों की मानसिक प्रवृत्तियाँ, चेतना का स्वभाव, और शील (नैतिकता) से संबंधित विषय।
    4. वीथि परिच्छेद – इसमें चित्त की प्रक्रिया (विथि) का वर्णन किया गया है। यह बताता है कि चित्त बाहरी और आंतरिक वस्तुओं को किस प्रकार ग्रहण करता है और उनसे कैसे प्रतिक्रिया करता है।
    5. वीथिमुत्त परिच्छेद – इसमें विथि से स्वतंत्र चित्त (अविथि चित्तों) का वर्णन किया गया है। यह चित्त उन अवस्थाओं को दर्शाता है जो सामान्य चित्त प्रवाह से अलग होते हैं, जैसे ध्यान और समाधि के उच्च स्तर।
    6. रूप परिच्छेद – इसमें रूप (भौतिक तत्वों) का विश्लेषण किया गया है। इसमें 28 प्रकार के रूपों का वर्णन किया गया है और उनके उत्पत्ति के कारणों को समझाया गया है।
    7. समुच्चय परिच्छेद – इसमें चित्त, चेतसिक और रूप के पारस्परिक संबंधों को बताया गया है। यह परिच्छेद विभिन्न तत्वों के संयोजन को स्पष्ट करता है।
    8. पच्चय परिच्छेद –इसमें कारण और परिणाम का विवरण दिया गया है। यह ‘पट्ठान’ के सिद्धांतों पर आधारित है और यह दर्शाता है कि चित्त, चेतसिक और रूप परस्पर किस प्रकार आश्रित हैं।

9. कम्मट्ठान परिच्छेद – इसमें भवनात्मक ध्यान और विपश्यना-कर्मस्थान का वर्णन किया गया है। इसमें बताया गया है कि विभिन्न ध्यान पद्धतियाँ किस प्रकार चित्त को शुद्ध करती हैं और निर्वाण की ओर ले जाती है।

चित्त

आरम्मणं चिन्तेतीति चित्तं अर्थात जो आलम्बन को जानता है वह चित्त है। चित्त को हम विज्ञान कहते हैं जो जानने का काम करता है अर्थात जो जानने के लक्षण वाला है वह सब एक में करके चित्त है। हम कह सकते हैं कि चित्त का स्वभाव मात्र जानना है। फिर भी जानने मात्र से एक होने के कारण भी इसकी उत्पत्ति कुशल, अकुशल और अव्याकृत तीन प्रकार से होता है। जो कुशल है उसके कामावचर, रूपावचर, अरूपावचर और लोकोत्तर ये चार भेद होते हैं, अकुशल केवल कामावचर होता है, जबकि अव्याकृत के भी चार भेद कामावचर, रूपावचर, अरूपावचर और लोकोत्तर होते हैं। चूंकि चित्त या मन ये सब अर्थ से एक हैं इसलिए हम कुशल के चारो भेदों को कामावचरकुशल, रूपावचरकुशल, अरूपावचरकुशल और लोकोत्तरकुशल कह सकते हैं। इसी प्रकार अकुशल को कामावचर-अकुशल और अव्याकृत को कामावचर-अव्याकृत, रूपावचर-अव्याकृत, अरूपावचर-अव्याकृत और लोकोत्तर-अव्याकृत कहते हैं।

इस प्रकार कुल मिलाकर चित्त 89 प्रकार का होता है, जिसके अन्तर्गत 54 कामावचर, 15 रूपावचर, 12 अरूपावचर और 8 लोकोत्तर चित्त आते हैं।

द्वादसाकुसलानेवं, कुसलानेकवीसति।

छत्तिंसेव विपाकानि, क्रियचित्तानि वीसति॥

अर्थात् इस गाथा माध्यम से चित्त का वर्गीकरण इस प्रकार है —

  1. द्वादस अकुसलानि → 12 अकुसल (अशुभ) चित्त होते हैं।
  2. एवं कुसलानेकवीसति → इसी प्रकार, 21 कुसल (शुभ) चित्त होते हैं।
  3. छत्तिंसेव विपाकानि → 36 विपाक (फल देने वाले) चित्त होते हैं।
  4. क्रियचित्तानि वीसति → 20 क्रिया (निष्प्रयोजन या कर्म-मुक्त) चित्त होते हैं।

कुल चित्तों की संख्या: – 12 (अकुसल) + 21 (कुसल) + 36 (विपाक) + 20 (क्रिया) = 89 चित्त

चतुपञ्‍ञासधा कामे, रूपे पन्‍नरसीरये।

चित्तानि द्वादसारुप्पे, अट्ठधानुत्तरे तथा॥

अर्थात् इस गाथा के माध्यम से चित्त का वर्गीकरण इस प्रकार है—

  1. चतुपञ्‍ञासधा कामेकामधातु (इंद्रिय-लोक) में 54 चित्त होते हैं।
  2. रूपे पन्‍नरसीरयेरूपधातु (सूक्ष्म रूप लोक) में 15 चित्त होते हैं।
  3. चित्तानि द्वादसारुप्पेअरूपधातु (निर्माण रहित लोक) में 12 चित्त होते हैं।
  4. अट्ठधानुत्तरे तथालोकत्तर (निर्वाणगामी) चित्त 8 होते हैं।

कुल चित्तों की संख्या:- 54 (कामधातु) + 15 (रूपधातु) + 12 (अरूपधातु) + 8 (लोकोत्तर) = 89 चित्त

कामावचरं चित्तं

आठ लोभसहगत चित्त

  1. सोमनस्ससहगतं दिट्ठिगतसम्पयुत्तं असङ्खारिकमेकं
  2. सोमनस्ससहगतं दिट्ठिगतसम्पयुत्तं ससङ्खारिकमेकं
  3. सोमनस्ससहगतं दिट्ठिगतविप्पयुत्तं असङ्खारिकमेकं
  4. सोमनस्ससहगतं दिट्ठिगतविप्पयुत्तं ससङ्खारिकमेकं
  5. उपेक्खासहगतं दिट्ठिगतसम्पयुत्तं असङ्खारिकमेकं
  6. उपेक्खासहगतं दिट्ठिगतसम्पयुत्तं ससङ्खारिकमेकं
  7. उपेक्खासहगतं दिट्ठिगतविप्पयुत्तं असङ्खारिकमेकं
  8. उपेक्खासहगतं दिट्ठिगतविप्पयुत्तं ससङ्खारिकमेकन्ति इमानि अट्ठापि लोभसहगतचित्तानि नाम।

दो दोससहगत चित्त

  1. दोमनस्ससहगतं पटिघसम्पयुत्तं असङ्खारिकमेकं
  2. दोमनस्ससहगतं पटिघसम्पयुत्तं ससङ्खारिकमेकन्ति इमानि द्वेपि पटिघसम्पयुत्तचित्तानि नाम।

दो मोहसहगत चित्त

  1. उपेक्खासहगतं विचिकिच्छासम्पयुत्तमेकं
  2. उपेक्खासहगतं उद्धच्‍चसम्पयुत्तमेकं

सात प्रकार के अकुसल विपाक चित्त

  1. उपेक्खासहगतं चक्खुविञ्‍ञाणं,
  2. उपेक्खासहगतं सोतविञ्‍ञाणं,
  3. उपेक्खासहगतं घानविञ्‍ञाणं,
  4. उपेक्खासहगतं जिव्हाविञ्‍ञाणं,
  5. दुक्खसहगतं कायविञ्‍ञाणं,
  6. उपेक्खासहगतं सम्पटिच्छनचित्तं,
  7. उपेक्खासहगतं सन्तीरणचित्तं

आठ प्रकार के कुसल विपाक अहेतुक चित्त

  1. उपेक्खासहगतं कुसलविपाकं चक्खुविञ्‍ञाणं
  2. उपेक्खासहगतं कुसलविपाकं सोतविञ्‍ञाणं
  3. उपेक्खासहगतं कुसलविपाकं घानविञ्‍ञाणं
  4. उपेक्खासहगतं कुसलविपाकं जिव्हाविञ्‍ञाणं
  5. सुखसहगतं कायविञ्‍ञाणं
  6. उपेक्खासहगतं सम्पटिच्छनचित्तं
  7. सोमनस्ससहगतं सन्तीरणचित्तं
  8. उपेक्खासहगतं सन्तीरणचित्तं

तीन अहेतुक किरिया चित्त

  1. उपेक्खासहगतंपञ्‍चद्वारावज्‍जनचित्तं
  2. तथा मनोद्वारावज्‍जनचित्तं
  3. सोमनस्ससहगतं हसितुप्पादचित्तं

आठ कामावचर कुसल चित्त

  1. सोमनस्ससहगतं ञाणसम्पयुत्तं असङ्खारिकमेकं
  2. सोमनस्ससहगतं ञाणसम्पयुत्तं ससङ्खारिकमेकं
  3. सोमनस्ससहगतं ञाणविप्पयुत्तं असङ्खारिकमेकं
  4. सोमनस्ससहगतं ञाणविप्पयुत्तं ससङ्खारिकमेकं
  5. उपेक्खासहगतं ञाणसम्पयुत्तं असङ्खारिकमेकं
  6. उपेक्खासहगतं ञाणसम्पयुत्तं ससङ्खारिकमेकं
  7. उपेक्खासहगतं ञाणविप्पयुत्तं असङ्खारिकमेकं
  8. उपेक्खासहगतं ञाणविप्पयुत्तं ससङ्खारिकमेकं

आठ सहेतुक कामावचर विपाक चित्त

  1. सोमनस्ससहगतं ञाणसम्पयुत्तं असङ्खारिकमेकं
  2. सोमनस्ससहगतं ञाणसम्पयुत्तं ससङ्खारिकमेकं
  3. सोमनस्ससहगतंञाणविप्पयुत्तं असङ्खारिकमेकं
  4. सोमनस्ससहगतंञाणविप्पयुत्तं ससङ्खारिकमेकं
  5. उपेक्खासहगतं ञाणसम्पयुत्तं असङ्खारिकमेकं
  6. उपेक्खासहगतं ञाणसम्पयुत्तं ससङ्खारिकमेकं
  7. उपेक्खासहगतं ञाणविप्पयुत्तं असङ्खारिकमेकं
  8. उपेक्खासहगतं ञाणविप्पयुत्तं ससङ्खारिकमेकं

आठ सहेतुक कामावचर कुसल विपाक किरिया चित्त

  1. सोमस्ससहगतं ञाणसम्पयुत्तं असङ्खारिकमेकं
  2. सोमस्ससहगतं ञाणसम्पयुत्तं ससङ्खारिकमेकं
  3. सोमनस्ससहगतं ञाणविप्पयुत्तं असङ्खारिकमेकं
  4. सोमस्ससहगतं ञाणसम्पयुत्तं ससङ्खारिकमेकं
  5. उपेक्खासहगतं ञाणसम्पयुत्तं असङ्खारिकमेकं
  6. उपेक्खासहगतं ञाणसम्पयुत्तं ससङ्खारिकमेकं
  7. उपेक्खासहगतं ञाणविप्पयुत्तं असङ्खारिकमेकं
  8. उपेक्खासहगतं ञाणविप्पयुत्तं ससङ्खारिकमेकं

रूपावचरं चित्तं

पांच रूपावचर कुसल चित्त

  1. वितक्‍कविचारपीतिसुखेकग्गतासहितं पठमज्झानकुसलचित्तं
  2. विचारपीतिसुखेकग्गतासहितं दुतियज्झानकुसलचित्तं
  3. पीतिसुखेकग्गतासहितं ततियज्झानकुसलचित्तं
  4. सुखेकग्गतासहितं चतुत्थज्झानकुसलचित्तं
  5. उपेक्खेकग्गतासहितं पञ्‍चमज्झानकुसलचित्तं

पांच रूपावचर विपाक चित्त

  1. वितक्‍कविचारपीतिसुखेकग्गतासहितं पठमज्झानकुसलचित्तं
  2. विचारपीतिसुखेकग्गतासहितं दुतियज्झानकुसलचित्तं
  3. पीतिसुखेकग्गतासहितं ततियज्झानकुसलचित्तं
  4. सुखेकग्गतासहितं चतुत्थज्झानकुसलचित्तं
  5. उपेक्खेकग्गतासहितं पञ्‍चमज्झानकुसलचित्तं

पांच रूपावचर किरिया चित्त

  1. वितक्‍कविचारपीतिसुखेकग्गतासहितं पठमज्झानकुसलचित्तं
  2. विचारपीतिसुखेकग्गतासहितं दुतियज्झानकुसलचित्तं
  3. पीतिसुखेकग्गतासहितं ततियज्झानकुसलचित्तं
  4. सुखेकग्गतासहितं चतुत्थज्झानकुसलचित्तं
  5. उपेक्खेकग्गतासहितं पञ्‍चमज्झानकुसलचित्तं

अरूपावचर चित्तं

चार अरूपावचर कुसल चित्त

  1. आकासानञ्‍चायतनकुसलचित्तं
  2. विञ्‍ञाणञ्‍चायतनकुसलचित्तं
  3. आकिञ्‍चञ्‍ञायतनकुसलचित्तं
  4. नेवसञ्‍ञानासञ्‍ञायतनकुसलचित्त

चार अरूपावचर विपाक चित्त

  1. आकासानञ्‍चायतनकुसलचित्तं
  2. विञ्‍ञाणञ्‍चायतनकुसलचित्तं
  3. आकिञ्‍चञ्‍ञायतनकुसलचित्तं
  4. नेवसञ्‍ञानासञ्‍ञायतनकुसलचित्त

चार अरूपावचर विपाक चित्त

  1. आकासानञ्‍चायतनकुसलचित्तं
  2. विञ्‍ञाणञ्‍चायतनकुसलचित्तं
  3. आकिञ्‍चञ्‍ञायतनकुसलचित्तं
  4. नेवसञ्‍ञानासञ्‍ञायतनकुसलचित्त
चित्तों के प्रकारसंख्या
लोभमूलक चित्त8
दोस-मूलक चित्त2
मोह-मूलक चित्त2
अकुसल विपाक चित्त7
कुसल विपाक चित्त8
किरिया चित्त3
अहेतुक चित्त18
सोभन चित्त59 या 91
कामावचर सोभन चित्त24
रूपावचर सोभन चित्त15
अरूपावचर सोभन चित्त12
लोकुत्तर सोभन चित्त8
सहेतुक कामावचर चित्त24
कामावचर चित्त54
रूपावचर चित्त15
अरूपावचर चित्त12
लोकुत्तर चित्त8

अकुशल चित्त

 प्रकारसंख्याविवरण
लोभ मूलक चित्त8लोभ (आसक्ति)
दोस मूलक चित्त2द्वेस (क्रोध)
मोह मूलक चित्त2मोह (अज्ञान)
योग 12अकुशल चित्त

 

 

 

अहेतुक चित्त

प्रकारसंख्याविवरण
अकुसल-विपाक चित्त75 पञ्चविज्ञान + 1 सम्पटिच्छन + 1 सन्तीरण
कुसल-विपाक चित्त85 पञ्चविज्ञान + 1 सम्पटिच्छन + 2 सन्तीरण
क्रिया चित्त32 पञ्चविज्ञान + 1 सम्पटिच्छन
योग18अहेतुक चित्त

 

सोभन चित्त

प्रकारसंख्याविवरण
कामावचर सोभन चित्त248 कुसल + 8 विपाक + 8 किरिया
रूपावचर सोभन चित्त155 कुसल + 5 विपाक + 5 किरिया
अरूपावचर सोभन चित्त124 कुसल + 4 विपाक + 4 किरिया
लोकुत्तर सोभन चित्त84 कुसल + 4 फल
योग59सोभन चित्त

 

सहेतुक कामावचर चित्त

प्रकारसंख्याविवरण
कुसल चित्त8पुण्य कर्म उत्पन्न करने वाले चित्त
विपाक चित्त8पुण्य कर्मों के फलस्वरूप उत्पन्न चित्त
किरिया चित्त8अर्हतों के निष्क्रिय (क्रिया मात्र) चित्त
योग24सहेतुक कामावचर चित्तों की कुल संख्या

 

कामावचर चित्त

प्रकारसंख्याविवरण
विपाक चित्त23पुण्य और अपुण्य कर्मो का परिणाम
कुसल और अकुसल चित्त20पुण्य और अपुण्य कर्म उत्पन्न करने वाले
क्रिया चित्त11अर्हतों और के चित्त
योग54कामावचर चित्तों की कुल संख्या

रूपावचर चित्त

प्रकारसंख्याविवरण
कुसल चित्त5रूप-लोक में जन्म देने वाले पुण्यजनक चित्त
विपाक चित्त5रूप-लोक में जन्म के फलस्वरूप उत्पन्न चित्त
किरिया चित्त5अर्हतों के क्रियात्मक चित्त
योग15रूपावचर चित्तो की कुल संख्या

 

अरूपावचर चित्त

प्रकारसंख्याविवरण
कुसल चित्त4अरूपलोक-लोक में जन्म देने वाले पुण्यजनक चित्त
विपाक चित्त4अरूप-लोक में जन्म के फलस्वरूप उत्पन्न चित्त
किरिया चित्त4अर्हतों और बुद्धों के क्रियात्मक चित्त
योग12अरूपावचर चित्तों की कुल संख्या

 लोकुत्त चित्त

प्रकार संख्याविवरण
कुसल चित्त4लोकुत्तर पुण्यजनक चित्त(मग्गचित्)
विपाक चित्त4लोकुत्त फलदायक चित्त (फलचित्त)
योग8लोकुत्तर चित्तो की कुल संख्या

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